Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 440
________________ गा० २२]. भुजगारविहत्तीए कालाणुगमो वज०-पंचिंदिय-पंचिंपञ्ज-तस-तसपञ्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०बेउब्विय०-तिण्णिवेद०-चत्तारि कसाय०-असंजद-चक्खु०-अचक्खु०-छल्लेस्स०-भवसिद्धि०--सण्णि-आहारि० वत्तव्वं । पंचिं० तिरि०अपज० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो। अवहि० सम्बद्धा । एवमणुदिसादि जाव अवराइदसव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचि० अपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०कम्मइय० --मादिअण्णाण - सुदअण्णाण - विहंग० - आभिणि० -सुद० - ओहि. - संजदा. संजद०-ओहिंदंस०-सम्मादि-वेदगसम्मा०-मिच्छादि०-असाण्ण-अणाहारित्ति वत्तव्वं । ६४६१. मणुस. भुज० जह० एयसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। अप्प० जह० पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये । विशेषार्थ-जब बहुतसे जीव एक समय तक भुजगार और अल्पतर विभक्तिको करते है, किन्तु दूसरे समयमें संसार में कोई जीव इन विभक्तियों को नहीं करता तब भुजगार और अल्पतरका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । तथा प्रत्येक समयमें अन्य अन्य नाना जीव भुजगार और अल्पतर विभक्तियोंको निरन्तर करें तो आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक करते हैं। अतः भुजगार और अल्पतरका उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा अवस्थित पदका काल सर्वदा स्पष्ट ही है। ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है अतः उनमें भुजगार आदिके कालको बोधके समान कहा है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लमध्यपर्याप्तकोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्त जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिये उनका सर्वकाल है । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये। ६४६१. सामान्य मनुष्योमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520