Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 433
________________ ४०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ संखे० भागो । एवं अवगद० - मणपज्ज०-संजद-सामाइयछेदो०-परिहार० वत्तव्वं । सव्वएइंदिएसु अवढि० सव्व० के० १ अणंता भागा। अप्पद० सब० के० । अणंतिमभागो। एवं वणप्फदि०-णिगोद०-ओरालियमिस्स० -कम्मइय०-मदिअण्णाण. सुद०-मिच्छादि०-असण्णि. अणाहारि० वत्तव्वं । आहार-आहारमिस्स० अवधि भागाभागो णत्थि । एवमकसा० सुहुमसांप० - जहाक्खाद० -अब्भव० -सासण. सम्मामि० वत्तव्वं । एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। ६४५३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अबहिदविहत्तिया केवडिखेत्ते ? सव्वलोए । भुज अप्पद० के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । एवं सव्वासिमणंतरासीणं चत्तारिकाय बादर० अपज० सुहुमपज्जत्तापज्जताणं अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये। सभी प्रकारके एकेन्द्रियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सभी एकेन्द्रियों के कितनेवें भागप्रमाण है ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। तथा अल्पतर विभक्तिम्थानवाले जीव सभी एकेन्द्रियोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले . जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये। ___ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें एक अवस्थित विभक्तिस्थान ही पाया जाता है, इसलिये वहां भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें एक अवस्थित विभक्तिस्थान पाया जाता है इसलिये यहां मी भागाभाग नहीं पाया जाता, ऐसा कहना चाहिये। इसप्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६४५३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार जितनी भी अनन्त राशियां हैं उनका तथा पृथिवी आदि चार स्थावरकाय तथा इनके बादर और बादरअपर्याप्त, सूक्ष्म, सूक्ष्मपर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र कहना चाहिये । इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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