Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 428
________________ गा० २२ ] भुजगारविnate मंगविचचो ४०३ S४४४. पंचि० तिरि० अपज० सिया सव्वे जीवा अवद्विदविहत्तिया, सिया अवदिविहत्तिया च अप्पदरविहत्तिओ च, सिया अवद्विदविहत्तिया च अप्पदरविहतिया च । एवं तिणि भंगा ३ । एवमणुदिसादि जाव सव्वट्ट ति-सव्वएइंदियसव्व विगलिंदिय पंचिं० अपज० - पंचकाय० - तस अपज० - ओरालिय मिस्स ०- कम्मइय ०मदिअण्णाण सुद- अण्णा०-विहंग०- आभिणि० सुद० - ओहि ० -मणपत्र ०- संजद - सामाइय-छेदो०- परिहार० -संजदासंजद - ओहिंदंस०- सम्मादि० खइय० - वेदय० - मिच्छादि० असण्णि० ० अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुसअपञ्जत्त० अट्टभंगा ८ । एवं वेउन्वियमिस्स० - अवगद ० -उवसम० वत्तव्वं । नाना जीव निरन्तर नियमसे पाये जाते हैं। पर शेष दो स्थानवाले जीव कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं। ४४. पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों में कदाचित् सभी जीव अवस्थितविभक्तिस्थानवाले होते हैं । कदाचित् अनेक जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और एक जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाला होता है । कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और नाना जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाले होते हैं । इसप्रकार तीन भंग पाये जाते हैं । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें तथा सभी प्रकारके एकेन्द्रिय, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्न काय योगी, कार्मणका योगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, निध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें कहना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणास्थानोंमें लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियतियेचोंके समान कदाचित् सब जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले होते हैं । कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और एक जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाला होता है । तथा कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और नाना जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाले होते हैं । मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों में अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानों में एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं । इसीप्रकार वैक्रिथिकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें कहना चाहिये । विशेषार्थ-ये लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य आदि ऊपरकी चारों मार्गणाएं सान्तरमार्गणाए हैं । इनमें कदाचित् एक जीव और कदाचित् नाना जीव पाये जाते हैं । तथा कदाचित् इन मार्गणाओं में एक भी जीव नहीं पाया जाता है । अतः इनमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले कदाचित् नाना जीवोंका और कदाचित् एक जीवका तथा अस्पतर विभक्तिस्थानवाले कदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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