Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 411
________________ ३८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६४१६. सादिय-अणादिय धुव-अद्भुव-अणिओगद्दाराणि जाणिदण वत्तव्वाणि । ६४२०.सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण भुजगारअप्पदर-अवष्टिदविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिष्ठिस्स मिच्छादिष्ठिस्स वा । एवं सत्तमपुढवि०-तिरिक्ख-पंचिंतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पज्ज-पंचिं० तिरि० जोणिणीमणुस्सतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज्ज-पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तस-तसपज०पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-वेउब्धिय-तिण्णिवेद-चत्तारि क०-असंजदचक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा०-भवसिद्धिय०-सण्णि-आहारि त्ति वत्तव्वं । पंचिं. तिरि० अपज० अप्पदर० अवष्टिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवं मणुसअपज०, अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं. अपज०-पंचकायतसअपज्ज०-ओरालियामिस्स० वेउव्वियमिस्स-कम्मइय - मदि- सुद-अण्णाण-विहंग०मिच्छाइ०-असण्णि-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । ६४२१. आहार-आहारमिस्स० अवष्ठिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवमकसायि०६४११. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुयोगद्वारोंको जानकर कथन करना चाहिये। ६४२०. स्वामित्व अनुयोगद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? यथासम्भव किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वीके जीवोंमें तथा तिर्यंच, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यंच योनीमती, सामान्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञो और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके होते हैं। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाय. योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए। ६४२१. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी आहारककाययोगी या आहारकमिश्रकाययोगी जीवके होता है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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