Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ तदो मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागमेतसव्युक्स्ससम्मनुव्वेक्षणकाले अंतोमुहुत्ताक्सेसे सत्तावीसविहत्तिओ होदि त्ति ण होदण उव्वेलणकालमचरिमसमए मिच्छत्तपढमहिदीए चरिमणिसेयं काऊण उबसमसम्मत्तं पडिवण्णो । तदो पढमछावहिं ममिय मिच्छन्तं गंतूण पुणो पलिदोषमस्स असंखेजदिभागभूदसबुकस्स सम्मतुव्वेल्लणकालचरिमसमए उवसमसम्मतं घेत्तूण विदियछावष्टिं ममिय मिच्छतं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभाममेतसव्वुकस्ससम्मत्तुव्वेल्लणकालेण सत्तावीसविहत्तिओ जादो । तदो तीहि पलिदोबमस्स असंखेजदिभागेहि सादिरेयाणि बेछावहिसागरोवमाणि अहावीस-विहत्तियस्स उक्कस्सकालो। एवं जइवसहाइरिय-चुण्णि-सुत्तमस्सिदूण ओधे परूवणा कदा।
६२६५. संपहि उच्चारणाइरियफ्रूविद-ओघुधारणं चुण्णिसुत्तसमाणं पुणरुत्तमरण छड़िय आदेसुच्चारणं भणिस्सामो। अचक्खु०-भवसिद्धि० ओघभंमो। ___६२६६. आदेसेण णिरयगईए रईएसु अष्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्झकृतिके सबसे उत्कृष्ट उद्वेलनकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागके व्यतीत होनेपर वह सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता पर ऐसा न होकर वह उस कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर उद्वेलना कालके उपान्त्य समयमें मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम निषेकका अन्त करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः सम्यक्प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलना कालके अन्तिम समयमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दूसरे छियासठ सागर काल तक भ्रमण करनेके पश्चात् पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ। अतः पन्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल होता है।
इसप्रकार यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका आश्रय लेकर ओघका कथन किया। .
६२१५.अब यतः उच्चारणाचार्यके द्वारा उच्चारणावृत्तिमें किया गया ओघका कथन चूर्णिसूत्रोंके समान है अतः पुनरुक्त दोषके भयसे उसका कथन न करके उच्चारणामें कहे गये आदेश प्ररूपणाका कथन करते हैं-अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके प्रकृतिस्थानोंका काल ओघके समान है । तात्पर्य यह है कि ये दोनों मार्गणाएँ मोहनीयके अवस्थानकाल तक सर्वदापाई जाती हैं । अतः इनमें ओघके समान काल बन जाता है।
६२.६६.आदेशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस विभक्ति स्थानका कितना काल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागर है। इसीप्रकार छब्बीस विभक्ति स्थानके कालका कथन करना चाहिये । सत्ताईस विभक्ति स्थानका काल कोषके समान
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