Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
नुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होनी चाहिये । २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर अन्य प्रकारसे भी प्राप्त हो सकता है सो उसका विचार कर कथन कर लेना चाहिये। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २८ विभक्तिस्थानके उत्कृष्ट कालका कथन अपने अपने नरककी स्थितिप्रमाण घटितकर लेना चाहिये। जिसके नरकमें रहनेका काल एक समय शेष रहनेपर सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना हो गई है उसके नरकमें २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसीप्रकार सातों नरकोंमें २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय जानना चाहिये । तथा २६ विभक्तिस्थानवाला जो मिथ्यादृष्टि नारकी जीव नरकमें उत्पन्न होकर जीवन पर्यन्त मिथ्यादृष्टि बना रहता है उस नारकीके सामान्यसे २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर पाया जाता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २६ विभक्तिस्थानका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्टकाल घटित कर लेना चाहिये। जिसके नरकमें रहनेका काल एक समय शेष रहनेपर सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो गई है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय ओघके समान बन जाता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २७ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय जानना चाहिये । तथा ओघकी अपेक्षा जो सत्ताईस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है वह यहां सामान्यसे नारकियोंमें सत्ताईस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । जिस सम्यग्दृष्टि नारकीने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त किया और अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तानुबन्धीकी सत्ता प्राप्त कर ली उस नारकीके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त जान लेना चाहिये । तथा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और पर्याप्त होनेके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अन्तर्मुहुर्त कालके भीतर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी पुनः जीवन भर २४ विभक्तिस्थानके साथ रहकर अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर वह मिथ्यात्वमें जाकर २८ विभक्तिस्थानवाला हो गया उसके २४ विभक्तिस्थानका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट काल पाया जाता है। सातवें नरकमें २४ विभक्तिस्थानका यही उत्कृष्ट काल होता है। किन्तु प्रथमादि छह नरकोंमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। उसमें जीवन के अन्तमें मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये, क्योंकि प्रारम्भके छह नरकोंमें सम्यग्दृष्टि नारकियोंका मरण होता है। अतः यहां कुछ कमसे भवके प्रारम्भमें विसंयोजना होने तकके कालका ही ग्रहण करना चाहिये । कृतकृत्य वेदकके कालमें एक समय शेष रहनेपर जो जीव नरकमें उत्पन्न होता है। उसके २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा कृतकृत्य वेदकके कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जो जीव नरकमें उत्पन्न होता है उसके २२ विभक्तिस्थानका
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