Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गौ० ३२ ]
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यपञ्ज०-तस-तसपञ्जत्ताणमोघभंगो । णवरि, अट्ठावीस ० जह० एगसमओ उक्क० सगहिदी ? छब्बीस विह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । पुढवि० - आउ०तेउ० - वाउ०- बादर-सुहुम० वणफदि० - बादर - सुहुम० णिगोद० - बादर-सुहुम० अट्ठावीससत्तावीस ० एइंदियभंगो । छव्वीसविह ० के ० १ जह० एस० उक्क० सगहिदी। बादरपुढवि० - आउ०० तेउ उ०- वाउ०- बादरवणप्फ दिपत्तेय ० - बादरणिगोदपदिद्विदपजत्त० बादरएइंदियपजत्तभंगो |
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके ओघके समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा छब्बीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। पृथिवीकायिक, अष्कायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इनके बादर और सूक्ष्म, वनस्पतिक्रायिक तथा इनके बादर और सूक्ष्म, निगोदजीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म जीवोंके अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्ति - स्थानका काल एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । उक्त जीवोंके छब्बीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर अप्कायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका काल बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - २४ विभक्तिस्थान से लेकर शेष सब विभक्तिस्थान पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके ही होते हैं अतः इनके २४ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान बन जाता है । अब रही २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंके कालोंकी बात, सो इनके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल भी ओघके समान बन जाता है । किन्तु २८ विभक्तिस्थानके जघन्यकालमें और २६ विभक्तिस्थानके उत्कृष्टकालमें कुछ विशेषता है जो ऊपर बताई ही है । तथा एकेन्द्रिय जीवोंके २८ और २७ विभक्तिस्थानोंके कालोंका तथा एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके २६ विभक्तिस्थानके कालका जिसप्रकार खुलासा कर आये हैं उसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि जीवोंके भी २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका खुलासा कर लेना चाहिये । तथा वीरसेनस्वामीने जिसप्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि जीवोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका विवेचन नहीं किया है उसीप्रकार यहांभी इन पृथिवी कायिक आदिके बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्तभेदोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका विवेचन नहीं किया है सो जिसप्रकार एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त आदिके २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल ऊपर कह
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