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गा० २२]
पयडिहाणविहत्तीए भंगविचो वीसविहत्तियाणियमा अस्थि। बावीसविहत्तिया भयाणजा। सिया एदे च बावीसविहत्तिओ च १, सिया एदे च बावीसविहात्तया च २। धुवे पक्खित्ते तिण्णिभंगा ३। एवं पढमपुढवि ०-तिरिक्ख ०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज० काउलेस्सा-देव-सोहम्मादि जाव सव्वहसिद्धेत्ति । णवरि णवाणुदिस-पंचाणुत्तरेसु सत्तावीस-छब्बीसविहचिया णत्थि।
३४८. विदियादि जाव सत्तमि त्ति अठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीसविहत्तिया णियमा अस्थि । एवं जोणिणी-भवण-वाण जोदिसि० वत्तव्यं । पंचि० तिरि० अपजत्तएसु अट्ठावीस-ससावीस-छव्वीसविहत्तिया णियमा अस्थि । एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपञ्ज० -पंचकाय०-तस अपञ्ज०-वेउन्धियःभजनीय हैं। अतः बाईस विभक्तिस्थानकी अपेक्षा दो भंग होंगे। १-कदाचित् ये अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। २कदाचित् ये अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीच होते हैं। इन दो भङ्गोंमें एक ध्रुव भङ्गके मिला देनेपर नारकियोंमें तीन भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीके जीवोंके तथा तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और कापोतलेश्यावाले जीवोंके तथा सामान्य देवोंके और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरवासी देवोंमें सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव नहीं होते।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंके जो तीन भङ्ग बताये हैं वे ही तीनों भङ्ग उपर्युक्त सभी जीवोंके सम्भव हैं; क्योंकि सामान्य नारकियोंके ध्रुव और भजनीय जो विभक्तिस्थान पाये जाते हैं वे सभी इन उपर्युक्त जीवोंके पाये जाते हैं। यद्यपि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरबासी देवोंके सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान नहीं बतलाये हैं फिर भी इन स्थानोंके न होनेसे भङ्गोंकी संख्यामें कोई अन्तर नहीं पड़ता है, क्योंकि इन देवोंके अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस इन तीन ध्रुव पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुवभङ्ग हो जाता है।
६३४८. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे होते हैं । अतः यहां 'अट्ठाईस आदि चार विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा नियमसे होते हैं' यही एक ध्रुवभङ्ग पाया जाता है। इसी प्रकार तिथंच योनिमती जीवोंमें तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें उक्त अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा एक ध्रुवभङ्ग कहना चाहिये। __पंचेन्द्रिय तियंच लबध्यपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे होते हैं । अतः इनमें 'अट्ठाईस आदि तीन विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा नियमसे होते हैं' यही एक ध्रुवभङ्ग पाया जाता है। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिक
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