Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालाणुगमो
वीस-सत्तावीस-छन्वीस-चउवीस-एकवीस० केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । तेवीसवावीस-तेरस-एक्कारस-चदु-तिण्णि-दोण्णि-एक० के० १ जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं । बारस० के. ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । पंच० के० ? जह० वे आबलियाओ विसमऊणाओ, उक्क० अंतोमु० । एवं पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज०-चक्खु०अचक्खु०-भवसिद्धि०-सण्णि आहारि त्ति वत्तव्यं ।
६३७१. आदेसेण णेरइएसु वावीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। तेईस, बाईस, तेरह, ग्यारह, चार,तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । बारह विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पांच विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका निर्देश किया है। अतः ओघसे २८, २७, २६, २४, और २१ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल सर्वदा बन जाता है, क्योंकि उक्त विभक्तिस्थानवाले जीव लोकमें सर्वदा पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त शेष विभक्तिस्थान सान्तर हैं कभी होते हैं और कभी नहीं होते। जब होते हैं तो कभी उनमें एक जीव और कभी नाना जीव पाये जाते हैं। फिर भी हर हालतमें २३,२२, १३, ११, ४, ३, २ और १ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि लगातार क्रमसे अनेक जीवोंके उक्त विभक्तिस्थानोंको प्राप्त होनेपर भी प्रत्येक विभक्तिस्थानमें लगातार रहनेके कालका योग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होता है । जो नपुंसक वेदी एक या अनेक जीव एक साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा जो स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी एक या अनेक जीव एक साथ या क्रमसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है । अतः बारह विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। एक जीवकी अपेक्षा पांच विभक्तिस्थानका काल दो समय कम दो आवली प्रमाण है। अब यदि क्रमसे अनेक जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं तो पांच विभक्तिस्थानका काल कई आवलिप्रमाण हो जाता है, अतः पांच विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलि और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघपरूपणा घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है ।
६३७१.आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें बाईस विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ?
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