Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] पयडिट्ठाणविहत्तीए खेताणुगमो
३२५ तिण्णिले०-भवसि०-मिच्छा-असण्णि आहारि० अणाहारि त्ति वत्तव्वं ।।
६३६१. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु सन्चप० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं सत्रपुढवि०-सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख-सव्वमणुस्स सव्वदेव-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि ० -आउ ० -तेउ ०-बादरवणप्फदिपत्तेय-णिगोद-पदिहिदपजत्ततसपजत्तापजत्त-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्धिय०-वेउ० मिस्स०-आहार-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस ०-अवगद०-अकसा० विहंग०-आभिणि ०-सुद०-ओहि ०-मणपज० -संजदसामाइयछेदो० - परिहार० - सुहुम ० - जहाक्खाद ० -संजदासंजद-चक्खु ० -ओहिंदंस०तिण्णिसुहलेस्सा-सम्मादि ०-खहय०-वेदग-उवसम -सम्मामि०-सण्णि ति वत्तव्वं । कार्मण काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चारों कषायघाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके २६ विभक्तिस्थानकी अपेक्षा सर्वलोक और शेष संभव विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र कहना चाहिये।
विशेषार्थ-यह परिमाणानुयोगद्वारमें ही बतला आये हैं कि २८, २७, २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात हैं, २६ विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्त हैं तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। अत: २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक और शेष विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण बन जाता है। ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार विभक्तिस्थानोंका विचार करके ओघके समान क्षेत्रका कथन कर लेना चाहिये। .....६३६१. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें संभव सभी विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसीप्रकार द्वितीयादि शेष सभी पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, सभी पंचेन्द्रियतियंच, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, त्रसअपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन शुभ लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, और संझीजीवोंमें सभी विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिये । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छब्बीस विभक्ति
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