Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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trader हिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहती २
किन्तु एकैक प्रकृतिविभक्ति
बतलाते हुए उनका उत्कृष्ट
बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि २ = विभक्तिस्थान वाला कोई एक स्त्रीवेदी मनुष्य पचपन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हुआ और वहां पर्याप्त होनेके पश्चात् उसने सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना होनेके अन्तिम समय में उपसमसम्यक्त्व पूर्वक वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की । तथा वह जीवन भर वेदकसम्यक्त्वके साथ ही रहा तो उसके पचपन पल्यकाल तक २८ विभक्तिस्थान पाया जाता है । देवी होने के पहले यह स्त्रीवेदी जीव और कितने काल तक २८ विभक्तिस्थानके साथ रह सकता है इसका स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र देखनेमें नहीं आया । स्वयं वीरसेन स्वामी ने भी इस कालको साधिक कहके छोड़ दिया है । अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल काल साधिक पचपन पल्य कहा है। इससे मालूम पड़ता है कि यहां साधिक से सम्यकूप्रकृतिका उद्वेलनाकाल इष्ट है । जो कुछ भी हो तात्पर्य यह है कि स्त्रीवेदमें २८ विभक्तिस्थान साधिक पचवन पल्यकाल तक पाया जाता है । स्त्रीवेदमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अपनी स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि स्त्रीवेदके साथ निरन्तर रहनेका उत्कृष्टकाल सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण बतलाया है और इतने काल तक यह जीव मिध्यादृष्टिभी रह सकता है तथा मिध्यादृष्टि के निरन्तर २६ विभक्तिस्थानके होनेमें कोई बाधा नहीं है । अतः स्त्रीवेदमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अपनी स्थितिप्रमाण बन जाता है । स्त्रीवेदमें २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय स्वयं बीरसेन स्वामीने बतलाया है । तथा उत्कृष्टकाल जो कुछ कम पचपन पल्य बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि कोई एक जीव पचपन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हुआ और वहां पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी बिसंयोजना कर दी । अनन्तर जीवन भर ऐसा जीव २४ विभक्ति स्थानके साथ रहा तो उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्यप्रमाण प्राप्त होता है । २३ और १३ विभक्तिस्थानका काल ओघके समान है । इसमें ओघसे कोई विशेषता नहीं है । २२ विभक्तिस्थानवाला जीव यद्यपि मर सकता है पर अन्य पर्याय में ऐसे जीवके नपुंसकवेद या पुरुषवेदका ही उदय होता है अतः स्त्रीवेद में २२ विभक्तिस्थानका काल भी ओघके समान बन जाता है । अब रही बारह विभक्तिस्थानकी बात, सो स्त्रीवेदके उदयसे जो जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके बारह विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता है, एक समय नहीं । तथा जो स्त्रीवेदी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ा और वहांसे गिर कर एक समय के लिये सवेदी होकर मर गया उसके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो स्त्रीवेदी जीव आठ वर्षके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करलेता है और आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि
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