Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ $ ३४३. संपहि फरणकमेणाणिदचदुसंजोगपत्थारसलागपमाणमेदं २१० । पंचसंजोगपत्थासलागा एत्तिया २५२। छसंजोगपत्थारसलागा एत्तिया २१० । सत्तसंजोगपत्थारसलागा १२० । अहसंजोगपत्थारसलागा ४५ । णवसंजोगपत्थारसलागा १० । दससंजोगपत्थारसलागा १ ।
विशेषार्थ-यद्यपि ऊपर प्रत्येक, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी स्थानोंके प्रस्तारोंका निर्देश कर आये हैं किन्तु इस गाथामें सर्वत्र प्रस्तारोंकी स्थापनाकी विधिका निर्देश किया है। यहां गाथामें लघु और दीर्घ शब्द आये हैं जिनसे लघु और दीर्घ वर्णोंका बोध होता है। किन्तु यहां जीवोंके भंग लाना इष्ट है अतः लघु शब्दसे एक जीव और दीर्घ शब्दसे अनेक जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । प्रस्तार रचनाके समय जहां एक ही स्थानके प्रस्तारकी रचना करना हो वहां जितने भंग हों उतनी बार क्रमसे हस्व और दीर्घ लिख लेना चाहिये । यथा १ २ । जहां द्विसंयोगी प्रस्तार लाना हो वहां पहली पंक्तिमें द्विसंयोगी प्रस्तारके जितने भंग हों उतनी बार लघु और दीर्घ लिखे तथा द्वितीयादि पंक्तियोंमें इन्हें दूना दूना करता जाय । यथा- द्वितीयपंक्ति १ १ २ २
प्रथमपंक्ति १ २ १ २ इसी प्रकार त्रिसंयोगी, चारसंयोगी आदि प्रस्तारोंको ले आना चाहिये । तीनसंयोगी प्रस्तार
तृ. पं० १ १ १ १ २ २ २ २ द्वि० पं० १ १ २ २ १ १ २ २
प्र. पं० १ २ १ २ १ २ १ २ चारसंयोगी प्रस्तार
च० पं० १ १ १ १ १ १ १ १ २ २ २ २ २ २ २ २ तृ. पं० १ १ १ १ २ २ २ २ १ १ १ १ २ २ २ २ . द्वि० पं० १ १ २ २ १ १ २ २ १ १ २ २ १ १ २ २
प्र० पं० १ २ १ २ १२ १२ १ २ १ २ १ २ १ २ . आगे पांचसंयोगी आदि प्रस्तार इसी प्रकार दूने दूने प्राप्त होते जाते हैं। ६३४३. इसप्रकार करणसूत्रके नियमानुसार 'लाये हुए चारसंयोगी प्रस्तारोंकी' शलाकाओंका प्रमाण २१० है । तथा पांचसंयोगी प्रस्तारशलाकाएं २५२, छसंयोगी प्रस्तारशलाकाएं २१०, सातसंयोगी प्रस्तार शलाकाएं १२०, आठसयोगी प्रस्तारशलाकाएं ४५, नौसंयोगी प्रस्तार शलाकाएं ? और दस संयोगी प्रस्तार शलाका १ होती है।
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