Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
AAAAAAA.inwww
२७८
जयपषलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिपिहनी २ मदिअण्णाणिभंगो। णवरि, अठावीस उक० तेत्तीससागरो० पलिदो. असंखे० भागेण सादिरेयाणि । चउवीस-एक्कवीसविह० के० १ जह० अंतोमुहुतं, उक्क० तेतीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । वाचीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमूहुतं । चक्खुदंस तसपञ्जत्तभंगो। विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। परिहार विशुद्धि संयतोंके २८, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल यद्यपि मनःपर्ययज्ञानीके समान होता है फिर भी इनके २८, २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल कहते समय पूर्वकोटि वर्षमेंसे ३८ वर्ष कम करना चाहिये। तथा संयतासंयतोंके २८, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल मनःपर्ययज्ञानियों के समान कहना चाहिये । __ असंयतोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानोंका काल मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तेतीस सागर है। चौबीस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। बाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंके स्थानोंका काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-यद्यपि असंयतोंमें २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल और २७ तथा २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके समान बन जाता है किन्तु असंयतोंमें २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है, क्योंकि असंयत पद्रसे मिथ्यात्वादि चार गुणस्थानोंका ग्रहण होता है और इस अपेक्षासे असंयतोंके २८ विभक्तिस्थानका उक्त काल प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती है। तथा जिस असंयतने अनन्दानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है या दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी क्षपणा की है उसके अन्तर्मुहूर्त कालके बाद ही अन्य गुणस्थानकी प्राप्ति होती है अतः असंयतोंके २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्काकी या तीन दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके संयत होता है, तथा मर कर एक समय कम तेतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न होता है और वहांसे च्युत होकर एक पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य होकर भवके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर संयत हो क्षपकश्रेणीपर आरोहण करता है उसके असंयत अवस्थामें २४ और २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर देखा जाता है। तथा जो संयत बाईस विभक्तिस्थानके काल में एक समय शेष रहनेपर अन्य गतिको प्राप्त होजाता है उसके असंयत अवस्थामें २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org