Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२) पडिहाणविहत्तीए मंगविची हेट्ठिमएक-अंका वि तेवीसविहत्तियस्स एग-बहुवयणाणि त्ति गेण्हिदव्वाणि ।
३३३७.संपहि तेवीसविहत्तियस्स एगसंजोगपत्थारालावोवुच्चदे । तं जहा-सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च १। सिया एदे च तेवीसविहत्तिया च २। एदाहि उच्चारणातेईस विभक्तिस्थानके एकवचन और बहुवचनका ग्रहण करना चाहिये।
विशेषार्थ-वीरसेन स्वामीने 'एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि आर्याकी १, ९ ६ इत्यादि संदृष्टि बतलाई है । अतः हमने आयर्याके पूर्वार्धका इसीके अनुसार अर्थ किया है। पर प्रकृति अनुयोगद्वारमें श्रुतके संयोगी अक्षरोंके भंग लाते समय उन्होंने उक्त आर्याकी
१ २ ३ इत्यादि रूपसे भी संदृष्टि स्थापित की है । लेखकने प्रमादसे इसे उलट कर लिख दिया होगा सो भी बात नहीं है; क्योंकि 'एदं ठविय अंतिमचउसटाए एगरूवेण भाजिदाए चउसठी संपातफलं लब्भदि' ( इस संदृष्टिको स्थापित करके अन्तमें आये हुए चौसठमें एकका भाग देनेपर संपातफल चौसठ प्राप्त होता है)। इससे जाना जाता है कि उक्त प्रकारसे इस संदृष्टिको स्वयं वीरसेन स्वामीने स्थापित किया है। इसके अनुसार आर्याका अर्थ निम्न प्रकार होगा- 'एकसे लेकर एक एक बढ़ाते हुए पदप्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्तमें स्थापित एकसे लेकर पदप्रमाण बढ़ी हुई संख्याका भाग दो। इस क्रियाके करनेसे संपातफल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है और संपातफलको नौ वटे दो आदिसे गुणित कर देने पर सन्निपातफल प्राप्त होता है'। इन दोनों अर्थों में से किसी भी अर्थके ग्रहण करनेसे तात्पर्य में अन्तर नहीं पड़ता। और आर्याके पूर्वार्धके दो अर्थ सम्भव हैं । मालूम होता है इसीसे वीरसेन स्वानीने एक अर्थका यहां और एकका प्रकृति अनुयोगद्वारमें संकलन कर दिया है । यहां सम्पातफलसे एकसंयोगी भंगोंका ग्रहण किया है इसीलिये उन्हें गच्छप्रमाण कहा है। तथा सनिपातफलसे द्विसंयोगी आदि भंगोंका ग्रहण किया है। दस भजनीय पदोंमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगोंका ग्रहण करना है अतः भजनीय पदोंके संयोगसे जितने विकल्प आते हैं उतने प्रस्तार विकल्प जानना चाहिये । यहां ये प्रस्तार विकल्प ही उक्त आ के अनुसार निकाल कर बतलाये गये हैं। तात्पर्य यह है कि यहां स्थानोंके संयोगी भंग और उनमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा अवान्तर भंग इसप्रकार दो दो बातें हैं । अत: यहां स्थानों के संयोगी भंग प्रस्तारविकल्प हो जाते हैं। जो आर्याके द्वारा निकाल कर बतलाये गये हैं। पर अन्यत्र जहां अवान्तर भंग नहीं होते हैं वहां इस आर्याक द्वारा केवल भंग ही उत्पन्न किये जाते हैं।
६३३७. अब तेईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी प्रस्तारका आलाप कहते हैं। वह इसप्रकार है-कदाचित् अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और तेईस प्रकृतिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित् अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और वेईस विभक्ति स्थानवाले
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