Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो
२६५ णवरि, उक्क० सगष्ठिदी वत्तव्वा । अणुदिसादि जाव सव्वहे ति अहावीस-चउवीसविह० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी। बावीस० णारगभंगो। एक्कवीस० केव०? जह० जहण्णहिदी अंतोमुहुत्तणा, उक० उक्कस्सहिदी।
सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक देवोंके स्थानोंके कालका कथन ओघके समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंके अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। बाईसप्रकृतिक स्थानका काल नारकियोंके समान समझना चाहिये । इक्कीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण है और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जिस वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है वह मर कर जब उत्कृष्ट आयुके साथ चार विजयादिकमें या सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होता है और वहां भी यदि वह अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करता है तो उसके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३३ सागर पाया जाता है। तथा जिसने अनन्दानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है ऐसा जो वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य उक्त स्थानोंमें पैदा होता है उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३३ सागर देखा जाता है। २६ विभक्तिस्थान मिथ्यादृष्टिके ही होता है। अतः देवोंमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३१ सागर ही कहना चाहिये, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव नौद्मवेयक तक ही पैदा होता है और नौवेयकमें उत्कृष्ट आयु ३१ सागरप्रमाण ही है इससे अधिक नहीं । वैमानिकोंमें जघन्य आयु साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है अतः यहां २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल साधिक एक पल्य और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है । भवनत्रिकोंमें चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इनमें सम्यग्दृष्टि जीव अन्य गतिसे आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः वहीं जिन्होंने वेदक सम्यक्त्व प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उनके ही २४ विभक्तिस्थान होता है जिसका जीवन भर पाया जाना सम्भव है, अतः ‘भवनत्रिकोंमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होता है। सौधर्मसे लेकर नौग्रैवेयक तक तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीव पैदा होते है। अतः वहां २८,२६,२४ और २१ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें यद्यपि सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं फिर भी जो वहां उत्पन्न होनेके अनन्तर अन्तमुहूर्त कालके पश्चात् अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर देते हैं उनके २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है ।
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