________________
गा० २२]
: फ्यडिहाणविहत्तीए कालो
२४३
तिर्यचोंके समान होता है। इसका यह तात्पर्य है कि पंचेन्द्रियतियंचोंके समान सामान्य मनुष्यों में भी २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय, २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त तथा २८ और २६ विभक्तियोंका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य, २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ओघके समान पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण और २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम तीन पल्य जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां पूर्वकोटिपृथक्त्वका खुलासा करते समय तिर्यचोंकी ६५ पूर्वकोटियां न कह कर मनुष्योंकी ४७ पूर्वकोटियां ही कहना चाहिये । शेष खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिथंचोंके कथनके समय कर आये हैं उसी प्रकार यहां कर लेना चाहिये । तथा सामान्य मनुष्योंमें केवल २१ विभक्तिस्थानके कालको छोड़ कर शेष विभक्तिस्थानोंका काल ओघके समान है । अतः ओघका कथन करते समय जिस प्रकार खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां कर लेना चाहिये । हां, ओघसे २१ विभक्तिस्थानके कालमें कुछ विशेषता है जो निम्न प्रकार है । उसमें भी सामान्य मनुष्योंके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल तो ओघके समान अन्तर्मुहूर्त ही होता है। पर उन्कृष्ट काल जो साधिक तेतीस सागर बतलाया है वह न होकर कुछ कम पूर्वकोटि त्रिभागसे अधिक तीन पल्य प्रमाण ही होता है । यथा-एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस कर्मभूमिया मनुष्यने आयुके त्रिभागप्रमाण शेष रहनेपर परभवसम्बन्धी मनुष्यायुका बन्ध किया । पुनः आयुबन्धके पश्चात् वेदक सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तर क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त किया। तदनन्तर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ शेष आयुका भोग करके और आयुके अन्तमें मरकर उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुके साथ मनुष्य हुआ और वहांसे देवगतिमें गया। उसके २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिके कुछ कम एक त्रिभागसे अधिक तीन पल्यप्रमाण पाया जाताहै। ऊपर जिस प्रकार सामान्य मनुष्योंमें २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालका खुलासा किया है उसी प्रकार पर्याप्त मनुष्योंके कर लेना चाहिये । पर इतना ध्यान रखना चाहिये कि पर्याप्त मनुष्योंके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंके उत्कृष्ट कालका खुलासा करते समय पूर्वकोटिपृथक्त्वसे २३ पूर्वकोटियोंका ही ग्रहण करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है । कृतकृत्य वेदक कालमें एक समय शेष रहनेपर जो मरकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है उस पर्याप्त मनुष्यके २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। तथा जिस मनुष्य पर्याप्तने दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है और कृतकृत्यवेदक होकर जो नहीं मरा है उसके २२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। तथा सामान्य मनुष्योंके समान मनुष्यणियोंके भी २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only.
www.jainelibrary.org