Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०.२२)
पयडिहाणविहत्तौए कालो
कालके प्राप्त होने पर जिसने सभ्यग्मिथ्यावकी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें पुन: उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया। तथा अनन्तर वेदक सम्यग्दृष्टि होकर जो जीवनपर्यन्त उसके साथ रहा उस तिर्यचके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन फ्ल्य प्राप्त होता है । जो तिर्थच सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाके प्रारम्भसे अन्त । तक तिर्यच पर्यायमें ही बना रहता है उस तिर्यचके २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ओषके समान पल्यका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । २६ विभतिस्थानका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है वह स्पष्ट ही है, क्योंकि किसी एक जीवके मिथ्यात्वके साथ निरन्तर तिथंचपर्यायमें रहनेका काल उक्त प्रमाण ही है। २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्टकाल जो कुछ कम तीन पल्य कहा है उसका कारण यह है कि कोई एक जीव उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ और वहां पर उसने सम्यक्त्वके योग्य कालके प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी। पुनः जीवन भर जो २४ विभक्तिस्थानके साथ रहा । उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ठ काल कुछ कम तीन पल्य होता है। यहां कुछ कमसे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होने तकका काल लेना चाहिये । यहां २२ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । भोगभूमिके तिर्यचकी जघन्य आयु पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट आयु तीन पल्यप्रमाण होती है। इसी अपेक्षासे तियंचोंमें २१ विभक्तिस्मानका जघन्य काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट काल तीन पल्यप्रमाण कहा है। यहां यह शङ्का की जा सकती है कि सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है कि जिसने क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेके पहले तिर्यंचायुका बन्ध कर लिया है ऐसा मनुष्य उत्तम भोगभूमिके नियंत्र पुरुषों में ही उत्पन्न होता है और उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीवकी जघन्य आयु भी दो पल्पसे अधिक होती है। अत: यहां २१ विभक्तिस्थानका जयन्यकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण नहीं बन सकता है। इस शङ्काका यह समाधान है कि सर्वार्थसिद्धिको छोड़ कर हमने दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायमें प्रचलित कार्मिक ग्रन्थ देखे पर वहां हमें यह कहीं लिखा हुआ नहीं मिला कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि मर कर अगर तिथंच और मनुष्य होता है तो उत्तमभोगभूमिया ही होता है । वहां तो केवल इतना ही लिखा है कि ऐसा जीव यदि मर कर तिथंच और मनुष्य हो तो असंख्यातवर्षकी आयुवाला भोगभूमिया ही होता है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिमें जो 'उत्तम' पद आया है वह भोगभूमि पदका विशेषण न होकर पुरुष पदका विशेषण है। अथवा ये दोनों कथन मान्यताभेदसे सम्बन्ध रखते हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। इस प्रकार ऊपर जो सामान्य तिर्यचोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल बतलाया है, उसमें से २८ और २६
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