Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो सेसगइपरूवयत्तादो। ___१२४२. अथवा 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' त्ति तईयाए विहत्तीए अत्थे पढमाविहत्ती णिद्देसो दहव्यो। तेण मणुस्सेण वामणुस्सिणीए वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे सम्मत्ते च सेसे बावीसविहत्तीओ होदि त्ति एदेण. सुत्तेण वावीसविहत्तियसंभवपरूवणादुवारेण सामित्तपरूवणा कदा । तेण बावीससंतकम्मिओ अण्णदरो सामि त्ति सुत्तत्थो दहव्यो । अथवा, जइवसहाइरियस्स वे उवएसा । तत्थ कदकरणिजो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिदण एवं सुत्तं कदं, तेण मणुस्सा चेव बावीसविहत्तिया ति सिद्धं । कदकरणिो मरदि त्ति उवएसो जइवसहाइरियस्स अत्थि त्ति कथं णव्वदे ? 'पढमसमयकदकरणिजो जदि मरदि णियमा देवेसु उववजदि । जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववादि तो णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिजो' ति जइवसहाइरियपरूविदचुण्णिसुत्तादो । णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिजो ण मरइ चेवेत्ति णियमो तियोंका प्रतिपादक है, उसीप्रकार प्रकृत सूत्र भी देशामर्षकभावसे शेष तीन गतियोंका प्ररूपण करता है।
६२४२.अथवा 'मणुस्सोवामणुस्सिणी वा' यह तृतीया विभक्तिके अर्थमें प्रथमा विभक्तिका निर्देश जानना चाहिये । इसलिये उक्त सूत्रका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य या मनुष्यनीके द्वारा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर और सम्यक्प्रकृतिके शेष रहने पर चारों गतियोंका जीव बाईस प्रकृतिरूप स्थानका स्वामी होता है। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा बाईस प्रकृतिक स्थान किसके संभव है इसकी प्ररूपणाद्वारा उसके स्वामित्वकी प्ररूपणा की। अतः बाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला किसी भी गतिका जीव उक्त स्थानका स्वामी है यह सूत्रका अर्थ समझना चाहिये ।
अथवा, यतिवृषभ आचार्यके दो उपदेश हैं। उनमेंसे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है इस उपदेशका आश्रय लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिये मनुष्य ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं यह बात सिद्ध होती है।
शंका-कृतकृत्यवेदक जीव मरता है यह उपदेश यतिवृषभाचार्यका है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्य वेदक जीव नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त कालतक कृतकृत्यवेदक रह कर ही मरता है' इसप्रकार यतिवृषभाचार्य के द्वारा कहे गये चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार कृत्वकृत्य वेदक
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