Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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९ २५२. पंचिदियतिरिक्खअपअ० अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीस-विहत्ती कंस्स १ सवस्थान होते हैं । इनमें से २८ सत्त्वस्थान नारकियोंके चारों गुणस्थानों में सम्भव है। कारण स्पष्ट है । २७ और २६ सवस्थान मिध्यादृष्टिके ही होते हैं, क्योंकि जिसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना की है वह २७ सस्वस्थानका स्वामी होता है। सो सम्यक्त्वकी उद्वेलना चारों गतिका मिध्यादृष्टि ही करता है, इसलिये नारकी मिध्यावृष्टिके २७ प्रकृतिक सस्वस्थान बन जाता है। इसी प्रकार २६ प्रकृतिक सस्वस्थान भी चारों गतिके मिध्यादृष्टिके ही होता है । यह सरवस्थान दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो जो अनादि मिध्यादृष्टि होता है उसके यह सस्वस्थान पाया जाता है और दूसरे जिस मिध्यादृष्टिने सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाकी है उसके यह सत्त्वस्थान पाया जाता है । यतः नरक में दोनों प्रकारके जीव सम्भव हैं अतः नारकी मिध्यादृष्टि के २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी बन जाता है । अब रहे शेष तीन सस्वस्थान सो वे सम्यग्दृष्टि ratथा में ही प्राप्त होते हैं । उसमें भी केवल अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि के २२ प्रकृतिक व क्षायिक सम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतिक सस्वस्थान होता है । सामान्यसे नारकीके ये तीनों ही अवस्थाएं सम्भव हैं अतः यहां उक्त सत्त्वस्थान भी सम्भव हैं। इस प्रकार सामान्य से नारकियोंके उक्त सत्त्वस्थान कैसे होते हैं इसका कारण बतलाया । प्रथम नरक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें भी उक्त सब अवस्थाएं सम्भव हैं अतः वहां भी ने स्वस्थान पाये जाते हैं । किन्तु दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तकके जीव और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी, भवन वासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव इनमें कृतकृत्य बेवसम्पदृयष्टि और क्षयिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते; इसलिये इनके २२ और २१ प्रकृतिक स्वस्थान नहीं पाये जाते हैं, शेष ४ सस्वस्थान पाये जाते हैं। यद्यपि यहां उच्चारणावृत्ति में सामान्यसे सौधर्म और ऐशानवासी देवोंके २२ और २१ प्रकृतिक सरवस्थान भी बतलाये हैं पर वे पुरुषवेदी देवोंके ही जानना चाहिये देवियोंके नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर जीवेदियों में उत्पन्न नहीं होता ऐसा नियम है । एक बात और है और वह यह कि प्रकृतमें २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामी सम्यग्दृष्टिको ही बतलाया है जब कि इसका स्वामी सम्यग्मिध्यादृष्टि भी होता है, सो वह सामान्य वचन है इसलिये कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके भी होता है। पर उच्चारणामें उसका उल्लेख नहीं किया है सो यहां सासादनसम्यग्दृष्टिका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अन्तर्भाव करके ही ऐसा विधान किया गया है ऐसा समझना चाहिये ।
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२५२. पंचेन्द्रिय तिर्यच लम्ध्यपर्याप्त जीवों में अट्ठाईस, सताईस और
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