Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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अन्यंतरे दुसमयूणदो आवलियमेतकालं गंतूण जेण खवेदि तेण माणसंजलण तिण्णि किट्टीखवणकालो तिरहं विहसियस्स जहण्णकालो होइ । तस्सेव उक्कस्सकालो बुच्चदे । तं जहा - जो पुरिसवेद - माणोदएण खवगसेटिं चार्डदो सो कोधोदएण खवगसेटिं चडिदस्स अस्सकण्णकरणकाले कोधसंजलणं फहयसरूवेण खवेदि । ताघे तिन्हं विहसिओ होदि । तदो कोघोदएण चाडदस्स किट्टीकरणकाले माण - माया - लोभसंजलणाणमस्सकण्णकरणं करेदि । कोधोदयक्खवगस्स कोधतिण्णि किट्टीवेदयकालम्मि माण- माया-लोभसंजलणाणं किट्टीओ करेदि । तदो माणसंजलणतिष्णिकिट्टीओ खवेमाणो मायासंजलणपढमकिट्टीअन्तरे दुसमयूणदो आवलियमेत्तकालं गंतूण माणणवकबंधं जेण खवेदि तेण माणोदयक्खवगस्स अस्सकण्णकरणकालो किट्टीकरणकालो किट्टीवेदयकालो च तिन्हं विहत्तियस्स उस्सकालो होदि ।
६२७२. उन्हं विहत्तियस्स जहण्णकालो वुच्चदे । तं जहा - पुरिस वेदमाणोस्वामी होता है । पुनः मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता हुआ मायासंज्वलन की पहली कृष्टिके कालमें से दो समय कम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर चूंकि उनका क्षय करता है इसलिये मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका जो क्षपणकाल है वह तीन प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल होता है ।
अब तीन प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल कहते हैं वह इस प्रकार है- जो पुरुषवेद और मानसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह जीव क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधके अश्वकर्णकरणका जो काल है उस कालमें क्रोधसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है । और तब वह जीव तीन प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है । तदनन्तर क्रोध के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनके तीन कृष्टियोंके करने का जो काल है उसकालमें, मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव मान, माया और लोभसंज्वलनकी अश्वकर्णक्रियाका करता है । तथा क्रोधके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधकी तीन कृष्टियोंके वेदनका जो समय है, मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उस समय मान, माया और लोभसंज्वलनकी तीन कृष्टियां करता है । तदनन्तर मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षपण करता हुआ माया संज्वलनकी पहली कृष्टिके कालमेंसे दो समय कम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर मानके नवकवन्धका चूंकि क्षय करता है इसलिये मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल और कृष्टिवेदककाल यह सब मिलकर तीन प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्टकाल होता है ।
$२७२. अब चार प्रकृतिरूप स्थानका जघन्यकाल कहते हैं। वह इसप्रकार है- जो पुरुष वेद और मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह जीव, क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक
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