________________
ग० २२]
पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो
२२६
६२६१. अवगद० चउवीस-एकवीसविह. कस्स ? अण्ण उवसंतकसायस्स । एकारस-पंच-चदु-तिण्णि-दोण्णि-एक्कविहत्ती कस्स ? अण्ण खवयस्स ।
६२६२. कसायाणुवादेण कोधक० अठ्ठावीसादि जाव पंच-चत्तारिविहत्ति त्ति मूलो. घमंगो । एवं माण०, गवरि तिविह० अत्थि। एवं माया०, णवरि दुविह० अस्थि । एवं लोम०, णवरि एयविह० अस्थि । अकसा० चउवीम-एक्कधीसविह० कस्स ? अण्ण. उवसंतकसायस्स । एवं जहाक्खाद० ।
६२६३. आभिणि-सुद०-ओहि० अहावीसविह० कस्स ? अण्ण० सम्माइढिस्स । सत्तावीस-छव्वीसविह० णत्थि। सेसाणमोघभंगो । एवमोहिदसणी-सम्माइडि-मणपजवणाणीणं । एवं सामाइय-छेदो० ।। शेष नपुंसकोंमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिये २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी नपुंसकवेदी नारकी और मनुष्य बतलाये हैं। यहां मनुष्यपर्याय जिस भवमें क्षायिक सम्यग्दर्शन पैदा करना है उसी भवकी अपेक्षा लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
२६१.अपगतवेदियोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी उपशान्तकषाय जीवके होते हैं । ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपकके होते हैं। अपगतवेदियोंके उपशमश्रेणीकी अपेक्षा २४ और २१ तथा क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा ११, ५, ४, ३, २ और १ सत्त्वस्थान होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।. . ...३२६२. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवों में अट्ठाईस विभक्तिस्थानसे लेकर पांच और चार विभक्तिस्थान तक मूलोषके समान कथन करना चाहिये। इसीप्रकार मानकषायियोंके भी समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके तीन विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायवाले जीवोंके भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके दो विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। मायाकषायवालोंके समान लोभकषायवालोंके भी समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके एक विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। कषायरहित जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं किसी भी उपशान्तकषाय जीवके होते हैं। अकषायी जीवोंके समान यथाख्यात संयतोंके भी कहना चाहिये।
६२६३.मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होता है। उक्त तीन ज्ञानवाले जीवोंके सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं। शेष चौबीस आदि स्थानोंका ओघके समान कथन करना चाहिये । अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि और मनःपर्ययज्ञानवाले जीवोंके भी इसीप्रकार समझना चाहिये । इसीप्रकार सामायिक और दोपस्थापनासंयत जीवोंके भी
indiameriwart
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org