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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ णत्थि; चउसु वि गईसु वावीसविहत्तियसंतसमुक्तित्तणादो। सम्यग्दृष्टि जीव नहीं ही मरता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका सत्त्व स्वीकार किया है।
विशेषार्थ-यहां यतिवृषभ आचार्यने बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी मनुष्य और मनुध्यनीको बतलाया है। इसपर शंकाकारका कहना है कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला मनुष्य जब मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका क्षय कर चुकता है तब बाईस विभक्ति स्थानका स्वामी होता है । इस समय सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति आठ वर्ष प्रमाण होती है। यद्यपि जब तक यह जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं हो जाता है तब तक नहीं मरता है इसलिये इस अपेक्षासे बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी केवल मनुष्य और मनुष्यनी भले ही हो जाओ, पर कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि हो जाने पर इसका मरण भी देखा जाता है और ऐसा जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है । अत: बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी चारों गतिका जीव होता है यतिवृषभ आचार्यको ऐसा कहना चाहिये था। शंकाकारकी इस शंकाका वीरसेन स्वामीने तीन प्रकारसे समाधान किया है। पहले तो यह बतलाया है कि बाईस विभक्तिस्थानके स्वामीका कथन करनेवाले उक्त चूर्णिसूत्रमें 'णियमा' पद न होनेसे यह जाना जाता है कि इस स्थानका स्वामी चारों गतियोंका जीव होता है। यद्यपि उक्त सूत्रमें चारों गतियोंका ग्रहण नहीं किया है फिर भी उक्त सूत्र तालप्रलम्ब सूत्रके समान देशामर्षक है अतः ‘मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' इस पदसे मनुष्यगतिके ग्रहणके समान अन्य तीन गतियोंका भी ग्रहण कर लेना चाहिये । दूसरा समाधान इसप्रकार किया है कि सूत्र में 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी' इसप्रकार जो प्रथमाविभक्त्यन्त पद है वह तृतीया विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिये। और इसप्रकार यह तात्पर्य निकल आता है कि बाईस विभक्ति स्थानका प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है पर उसकी समाप्ति चारों गतियोंमें हो सकती है। तीसरा समाधान इसप्रकार किया है कि इस विषयमें यतिवृषभ आचार्यके दो उपदेश जानना चाहिये । एक उपदेशके अनुसार कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरता नहीं है और दूसरे उपदेशके अनुसार मरता भी है। इनमेंसे पहले उपदेशका संग्रह यहां किया गया है तथा दूसरे उपदेशका संग्रह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नामक अधिकार में किया गया है। इसप्रकार वीरसेनस्वामीने उक्त शंकाके जो तीन उत्तर दिये हैं उनके देखनेसे स्पष्ट हो जाता है कि पहले दो समाधानोंके द्वारा वीरसेनस्वामीने यतिवृषभ आचार्यके भिन्न दो उपदेशोंके समन्वय करनेका प्रयत्न किया है। और तीसरे उत्तरमें समन्वय करनेकी दिशा छोड़कर मतभेदको स्वीकार कर लिया है। मालूम होता है कि वीरसेनस्वामीके सामने ऐसा कोई स्पष्ट आगमबचन न था जिससे 'कृतकृत्यवेदक सम्यगृहष्टि
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