Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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vaisgracity अणियोगद्दारणामाणि
१६६
*पयडिट्ठाणविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा, एंगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढि त्ति ।
गा० २२ ]
१२०७. मिच्छत्ता दियाओ पयडीओ त्ति घेत्तव्वाओ;क म्मपयाडं मोत्तूण अण्णपयडी हि अहियाराभावादो | चिट्ठेति एत्थ पयडीओ त्ति द्वाणं । अट्ठावीस सत्तावीस-छब्बीसादिपडीणं ठाणाणि पयडिद्वाणाणि । ताणि च बंधद्वाणाणि उदयद्वाणाणि संतद्वाणाणि त्ति तिविहाणि होंति । तत्थ केसिमेत्थ ग्गहणं ? ण बंधद्वाणाणं; तेसिं महाबंधे बंधगेत्ति सणिदे उवरि वणिजमाणत्तादो । गोदयद्वाणाणं गहणं; वेदगेत्ति आणियोगद्दारे पुरदो बण माणत्तादो । परिसेसादो संतपयडिद्वाणाणं अट्ठावीस सत्तावीस छब्वीस चदुवीस तेवीस बावीस एकवीस तेरस बारस एक्कारस पंच चत्तारि तिष्णि दोणि एकं ति देसिं गहणं ।
*प्रकृतिस्थानविभक्तिमें ये अनुयोगद्वार आये हैं । जो इस प्रकार हैं- एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि |
२०७. इस कसायपाहुड में प्रकृति शब्द से मिथ्यात्व आदिक कर्मप्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रकृत में मिथ्यात्व ध्यादिक कर्मप्रकृतियोंको छोड़कर अन्य प्रकृतियों का अधिकार नहीं है । जिसमें प्रकृतियां रहती हैं उसे अर्थात् प्रकृतियोंके समुदायको स्थान कहते हैं । अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस आदि प्रकृतियोंके स्थानोंको प्रकृतिस्थान कहते हैं ।
शंका- वे प्रकृतिस्थान बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थानके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं । सो उनमें से यहां किसका ग्रहण किया है ?
समाधान - प्रकृत में बन्धस्थानोंका तो ग्रहण किया नहीं जा सकता है, क्योंकि आगे 'बन्धक ' नामवाले महाबन्ध अधिकार में उनका वर्णन किया जानेवाला है । उदयस्थानोंका भी ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि आगे वेदक अनुयोगद्वार में उनका वर्णन किया जानेवाला है । अत: पारिशेष न्यायसे अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप सत्त्वप्रकृतिस्थानोंका प्रकृत में ग्रहण किया है ।
विशेषार्थ - प्रकृतमें मोहनीय कर्मके बन्धस्थानों और उदयस्थानोंका कथन न करके उक्त स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा सत्त्वस्थानोंका कथन किया जा रहा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
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