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गी० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसी
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पुच्छादो पमाणभावावगमो ? एस गोदमसामिपुच्छा तित्थियरविसया जेण तेण पमाणतमवगम्मदे, सगकत्तारत्तं वा अवणिदमेदेण सुत्तेण ।
(णियमा मस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ एकिस्से विहत्तिए सामिओ
( २३८. मस्सो चैव, णिरय-तिरिक्ख- देवगईसु मोहक्खवणार अभावा दो । तं कुदो वदे ? 'णियमा मणुस्सो' त्ति वयणादो । 'वा' सद्देण ण अण्णगईणं गहणं; मणुस्सिणीसमुच्चय वियस अण्णगइ गहणविरोहादो । विदिओ 'वा' सदो मणुस्सिणीसमुच्चयहो ति काऊण पढमं 'वा' सहो गइसमुच्चयट्टो त्ति किण्ण घेष्पदे ? ण, दोन्हं 'वा' सहाणं
समाधान - शास्त्रकी प्रमाणताके प्रतिपादन करनेके लिये कहा है ।
शंका- पृच्छाके द्वारा शास्त्रकी प्रमाणताका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान - चूंकि यह पृच्छा गौतम स्वामीने तीर्थंकर महावीर भगवान से की हैं । अतः इससे शास्त्रकी प्रमाणताका ज्ञान हो जाता है ।
अथवा, चूर्णिसूत्रकारने इस सूत्र के द्वारा अपने कर्तृत्वका निवारण कर दिया है अर्थात् इससे उन्होंने यह सूचित किया है कि यह वस्तु उनकी स्वयं की उपज नहीं है, किन्तु गौतम स्वामीने भगवान महावीरसे जो प्रश्न किये थे और उन्हें उनका जो उत्तर प्राप्त हुआ था उसे ही उन्होंने निबद्ध किया है ।
*नियमसे चपक मनुष्य और मनुष्यनी ही एकप्रकृतिक स्थानविभक्तिका स्वाभी होता है ।
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९२३८. मनुष्य ही एक प्रकृतिकस्थानविभक्तिका स्वामी है, क्योंकि नरकगति, तिर्यंचगति, और देवगतिमें मोहनीय कर्मकी क्षपणा नहीं होती है ।
शंका-नरक, तिथंच और देवगतिमें मोहनीय कर्मकी क्षपणा नहीं होती यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - चूर्णिसूत्र में आये हुए 'णियमा मणुस्सो' इस वचनसे जाना जाता है कि उक्त तीन गतियों में मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होता है ।
यदि कहा जाय कि 'मणुस्सो वा' यहां स्थित 'वा' शब्द से अन्य नरकादि गतियोंका ग्रहण हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि यहां पर 'वा' शब्द मनुष्यनियोंके समुच्चय के लिये रखा गया है, अतः उससे अन्य गतिका ग्रहण मानने में विरोध आता है ।
शंका- ' मणुस्सिरणी वा' यहां पर स्थित दूसरा 'वा' शब्द मनुष्यनियोंके समुचयके लिये है ऐसा मानकर पहला 'वा' शब्द अन्य गतियोंके समुच्चयके लिये है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
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