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गा० २२ । पयडिट्ठाणविहत्तीए हाणसमुक्कित्तणा
२०१ कृपयडिहाणविहत्तीए पुव्वं गमणिज्जा हाणसमुक्त्तिणा ।
$२०६.'पुव्वं' पढमं चेव 'गमाणिजा' अवगंतव्वा 'हाणसमुकित्तणा' ठाणवण्णणा; ताए अणवगयाए सेसाणिओगद्दाराणं पढणासंभवादो । तेण हाणसमुकित्तणा सवाणियोगद्दाराणमादीए वत्तव्वेत्ति भणिद होदि ।
अस्थि अट्ठावीसाए सत्तावीसाए कव्वीसाए चउवीसाए तेवीसाए वावीसाए एकवीसाए तेरसण्हं बारसण्हं एकारसण्हं पंचण्हं चदुण्हं तिण्हं दोण्हं एकिस्से च १५ । एदे ओघेण। चूर्णिसूत्रकारने 'सेसाणि अमिओगहाराणि णेदव्वाणि' यह चूर्णिसूत्र कहा है। मालूम होता है इस परसे वीरसेनस्वामीने यह निश्चय किया है कि चूर्णिसूत्रकारको इन तेरहके अतिरिक्त सात अनुयोगद्वार और इष्ट हैं । अब समुत्कीर्तना आदि सात अनुयोगद्वारोंका 'एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व' आदि तेरह अनुयोगद्वारों में किस प्रकार अन्तर्भाव होता है इसका निर्देश करते हैं। समुत्कीर्तनाका स्वामित्व अनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि समुत्कीतनामें स्थानोंका और स्वामित्वमें स्थानोंके स्वामीका कथन रहता है, अतः अलगसे स्थान न कहने पर भी किस स्थानका कौन स्वामी है इसका कथन करनेसे स्थानोंका कथन होही जाता है। सादि,अनादि, ध्रुव और अध्रुवका काल और अन्तर अनुयोगद्वारोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि काल और अन्तरका ज्ञान हो जाने पर सादि आदिका ज्ञान हो ही जाता है। मोहनीयके उदयादिके सद्भावमें ही ये अट्ठाईसप्रकृतिक आदि स्थान होते हैं यह बात भावानुयोगद्वारका अलगसे कथन न करने पर भी जानी जाती है। तथा भागाभागका अल्पबहुत्वानुयोगद्वार में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि किस स्थानवाले जीव अल्प हैं और किस स्थानवाले जीव बहुत हैं, इसका ज्ञान हो जाने पर भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है । इस प्रकार समुत्कीर्तना आदि सात अनुयोगद्वारोंका स्वामित्व आदिकमें अन्तर्भाव जानना चाहिये।
प्रकृतिस्थानविभक्ति में सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाको जान लेना चाहिये । ६२०९. इस चूर्णिसूत्रमें 'पूर्व' पद 'प्रथम' इस अर्थमें आया है। 'गमणिज्जा'का अर्थ 'जानना चाहिये होता है । 'ट्ठाणसमुक्कित्तणा' का अर्थ 'अट्ठाईस आदि स्थानोंका वर्णन' है। जब तक अट्ठाईस आदि स्थानोंका ज्ञान नहीं हो जायगा तब तक स्वामित्व आदि शेष उन्नीस अनुयोगद्वारोंका कथन करना संभव नहीं है, इसलिये स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वारको सभी अनुयोगद्वारोंके आदिमें कहना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
*मोहनीयके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौवीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक ये पन्द्रह सरवस्थान होते हैं। ये सस्वस्थान ओघसे होते हैं।
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