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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
विहत्तिओ, सिया अविहत्ति० । सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ । एवमेकारसकसाय-णवणोकसायाणं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख गई - पंचिंदियतिरिक्ख पंचि ० तिरि०पञ्ज०-देव०- सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजदेव०-ओरालियमिस्स० - वेउब्विय मिस्स०-कम्म इय० - असंजद० - तिणि लेस्सा - अणाहारि त्ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तामि त्तिमिच्छतस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त सम्मामि० - अनंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ | सेसाणं पयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं बारसकसाय-णवणोकहै । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध के समान शेष ग्यारह कषाय और नो कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । इसी प्रकार पहली पृथिवी, तिर्थचगति, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देव, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
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विशेषार्थ - नारकियों में मिध्यात्व विभक्तिवालेके अनन्तानुबन्धी चतुष्क सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये छह प्रकृतियां होती भी हैं और नहीं भी होती हैं । विसंयोजक के अनन्तानुबन्धी चतुष्क नहीं होतीं तथा जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके उक्त दो प्रकृतियां नहीं होती । किन्तु इसके शेष सभी प्रकृतियोंकी सत्ता है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है उसके मिध्यात्व, सम्यग् मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह प्रकृतियां होती हैं और नहीं भी होती हैं । जो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न हुआ है उसके उक्त छहका सत्व नहीं होता । तथा जिस वेदक सम्यग्दृष्टिने चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके उक्त चारका सत्त्व नहीं होता शेषके होंका सत्व होता है । किन्तु इसके शेषका सत्व नियमसे होता है । सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्ति वाले जीवके अनन्तानुबन्धी चार और सम्यक्त्व ये पांच प्रकृतियां हैं भी और नहीं भी हैं । जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है उसके अनन्तानुबन्धी चार नहीं हैं । तथा जिसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर दी है उसके सम्यक्त्व नहीं है शेषके ये पांचों प्रकृतियां हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा ओघ कथनसे कोई विशेषता नही है । तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिकी विभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चार ये सात प्रकृतियां होती भी हैं और नहीं भी होती हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टिके नहीं होती, शेषके यथा संभव विकल्प जानना । ऊपर जो प्रथम नरकके नारकी आदि अन्य मार्गणाएं गिनाई हैं वहां भी इसी प्रकार समझना ।
दूसरे से लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक स्थानके नारकी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है वह सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति बाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी
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