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गो० २२ ]
उत्तरपयडिविहतीए फोसणागमो
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११७६. फोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघे छब्बीसं पय० विह० केवडियं खेतं फोसिदं ?, सव्वलोगो । अविहत्तिएहि केवडि० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । सम्मत्त०सम्मामि ० विह० के० : लोगस्स असंखेज्जदिभागों अट्ठ चोहसभागा वा देणा सव्वलोगो वा । अविहत्ति० केव० ? सव्वलोगो । एवं तिरिक्खोषं सव्व एइंदिय
सारिकाय- बादर ते सिमपज्ज - सुहुम ० - पज्जत्तापज्जत - बादरवणफदिपत्तेय ० ते सिमपज्जत - बादरणिगोदपदिदि० ते सिमपज्ज० वणष्कदि० - बादर-सुहुम-तेसिं पज्जतापज्जतकाययोग - ओरालिय-ओरालिय मिस्स ० - कम्मइय० णवुंस० - चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणि असंजद० - अचक्खु ० - तिण्णिलेस्सा-भवसिद्धि० - अभवसिद्धि ०-मिच्छादिवि०एकेन्द्रिय मुख्य हैं और उनका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है अतः उक्त दो प्रकृतियोंकी अविभक्तिवालों का वर्तमान क्षेत्र भी सब लोक बन जाता है । यह सामान्य कथन हुआ । इसी प्रकार मार्गणाओंकी अपेक्षा कथन करते समय उक्त सभी प्रकृतियोंके सत्त्व और असश्वका विचार करते हुए जहां जो विशेषता संभव हो उसके अनुसार कथन करना चाहिये । जिसका संक्षेप में ऊपर निर्देश किया ही है ।
इसप्रकार क्षेत्रानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
४ १७६. स्पर्शानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है । अबिभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, लोकके असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक् प्रकृति और सम्यगमिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, श्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिया की अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकाय आदि चार स्थावर काय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और इन चार बादरोंके अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंगत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन देश्यात्राळे, भव्य, अभव्य,
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