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गा० २२ ।
उत्तरपय डिविहत्तीए अप्पाबहुश्रागम
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सम्मामि० अविहत्तिया । अनंताणु ० चउक्क० अवि संखेज्जगुणा । तस्सेव विह० संखेज्जगुणा | मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि ० विह० विसेसा० । बारसक० - णवणोकसाय० विह० विसे० ।
१ २०१. वेदानुवादे इत्थि० सव्क्त्थोवा णवुंस० अविह० । अट्ठक० अविह० संखेज्जगुणा । कुदो ! बारसविहत्तिएहिंतो तेरसविहत्तियाणमा पडिमागेण संखेजगुणत्तसिद्धीए पडिबंधाभावादो । ण च ओघमणुस्सगईयादिसु वि एसो पसंगो आसंकणिजो; तत्थ सिद्धसजोगीणं पमुहभावेणाद्वापडिभागस्स पहाणत्ताभावादो । एसो नुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ।
विशेषार्थ - बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकाययोगी जीव वे हैं जो कपाट और प्रतर समुद्धात अवस्थाको प्राप्त हैं । इसलिये ये सबसे थोड़े बतलाये हैं । तथा मिध्यात्व की अविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकायोगियोंमें, जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मर कर ममुष्यों में उत्पन्न होते हैं वे, और जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि या कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर मनुष्यों और तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं वे लिये गये हैं, इसलिये ये पूर्वोक्त जीवोंसे संख्यातगुणे बतलाये हैं । इसी प्रकार आगेका अल्पबहुत्व भी घटित कर लेना चाहिये । किन्तु कार्मणकाययोगियोंमें जो मिथ्यात्व की अविभक्तिवालोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे बतलाये हैं सो इसका कारण यह है कि यहां चारों गतियोंके कार्मणकाययोग अवस्थामें स्थित अनन्तानुबन्धी विसंयोजक जीव लिये गये हैं । अतः इनके असंख्यातगुणे होने में कोई आपत्ति नहीं है ।
२०१. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवों में नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। क्योंकि बारह प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरहप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीव कालसम्बन्धी प्रतिभागसे संख्यातगुणे सिद्ध होते हैं । अतः नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ऐसा मानने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है । पर इससे सामान्य प्ररूपणा और मनुष्य गति आदि मार्गणाओं में भी यह प्रसंग प्राप्त होता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहां सामान्य प्ररूपणा और मनुष्य गति आदिमार्गणाओं में सिद्ध और सयोगी जीवोंका मुख्य रूपसे ग्रहण किया गया है, इसलिये वहां काल सम्बन्धी प्रतिभागकी प्रधानता नहीं है । यह अर्थ यथासंभव अन्य मार्गणाओंमें
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