Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
विह० विसे । सम्मत्त विह० विसे० । अहक० विह० विसे० । एवं जाव लोभ० विह० विसे । एवमोहिदंस० । मणपज्जव०-संजदाणं पि एवं चेव । णवरि, जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं सामाइयछेदो० वत्तव्यं । णवरि, अट्ठक० अवि० संखेज्जगुणा । लोभसंजल. अव्हि० णस्थि । परिहार० सव्वत्थोवा सम्मत्त० अविह० । सम्मामि० अविह० विसे । मिच्छत्त० अविह० विसे । अणंताणु०चउक्क० अविह० संखेजगुणा। तस्सेव विह० संखेजगुणा। मिच्छत्त० विह० विसे०। सम्मामि० विह. विसे० । सम्मत्त० विह० विसे० । बारसक०-णवणोक० विह० विसे० । एवं संजदासंजदाणं । णवरि, जम्हि संखेज्जगुणा तम्हि असंखेजगुणा । सुहुमसांपराइय० सव्वत्थोवा दंसणतियस्स विह० । वीसपय० विह० विसे । तेसिं चेव अविह० संखेज्जगुणा। दंसणतिय० अविह० विसे। लोभसंजल विह० विसे० । अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। आगे 'इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं' इस स्थान तक इसी प्रकार कहना चाहिये । इसी प्रकार अवधदर्शनी जीवोंके अल्पबहुत्व कहना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके भी इसीप्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मतिज्ञानी आदि जीवोंके जहां असंख्यातगुणा कहा है वहां इनके संख्यातगुणा कहना चाहिये । इसी प्रकार सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें आठ कषायकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तथा इन दोनों संयत जीवोंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्ति नहीं हैं। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां परिहार विशुद्धिसंयतोंके संख्यातगुणा है वहां इनके असंख्यातगुणा है। सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें तीन दर्शनमोहनीयकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे उन्हीं बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तीन दर्शनमोहनीयकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं।
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