Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 189
________________ १६४ जवल सहिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ चत्तारिकाय० - बादर - तेसिमपज्ज० -सुहुम० पज्जत्तापज्जत- बादरवणप्फदिपत्तेय० -तेसिमपज्ज० बादरणिगोदपदिडिद० तेसिमपज्ज० वणप्फदि० - बादर - सुहुम० - तेसिं अपज्ज० - काय जोगि - ओरालि ०-ओरालिय मिस्स० कम्मइय० णवुंस० - चत्तारिक० - मदि पज्ज० सुदअण्णाणि असंजद० - अचक्खु०- तिण्णिले ०-भवसिद्धि ० -अभवसिद्धि०-मिच्छादि० असण्णि० - आहारि० - अणाहारि त्ति वत्तव्वं । णवरि, काययोगि कम्महय ० - मंवसिद्धियअणाहारिमग्गणाओ मोत्तूण अण्णत्थ केवलिपदं णत्थि । सेसाणं मग्गणाणं अड्डावीसपडणं विहत्तिया के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । णवरि, बादरवाउपज्जत्ता लोगस्स संखेज्जदिभागे । सव्वत्थ समुक्कित्तणावसेण सव्वपयडीणं विहत्तियाविहत्तियपदविसेसो च जाणिय वतव्वो । एवं खेतं समत्तं । रहते हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवी कायिक आदि चार स्थावर काय, तथा ये चारों बादर और उनके अपर्याप्त, पृथिवी कायिक आदि चार सूक्ष्म और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके अपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित तथा इनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंझी, आहारी और अनाहारी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमेंसे काययोगी, कार्मणकाययोगी, भव्य और अनाहारक मार्गणाओंको छोड़कर अन्य मार्गणाओंमें केवलिसमुद्धातपद सम्बन्धी विशेषता नहीं है । शेषं मार्गणाओं में अट्ठाईस प्रकृति1 योंकी विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । सर्वत्र समुत्कीर्तनाके अनुसार सर्व प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्ति पदोंमें जहां जो विशेषता हो उसको जानकर कथन करना चाहिये । 1 विशेषार्थ - छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है यह तो स्पष्ट है, क्योंकि कुछ गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको छोड़कर शेष सबके छब्बीस प्रकृतियां पाई जाती हैं । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा अधिक नहीं । तथा छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीवोंमें सयोगी और सिद्ध जीव मुख्य हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग, लोकके असंख्यात बहुभाग और सब लोक प्रमाण बन जाता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवालोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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