Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सणिणयासो
१४४. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ तस्स सव्वपयडीणमोघभंगो । एवं सम्मत्तस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसाय० णियमा विहत्तिओ। सम्मत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ। अणंताणुवंधिचउक्कस्स ओघभंगो। अपञ्चक्खाणकोधस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु० चउक्काणं सिया श्रेणीसे उतरे हुए द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीवके चौथसे सातवें तक अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना चौबीस प्रकृतियां सत्तामें हैं। तथा जिस वेदकसम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उसके भी चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता है। तथा क्षायिक सम्यक्त्वके सन्मुख हुए वेदगसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेपर चौबीसकी, मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेपर तेईसकी, सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेपर बाईसकी और सम्यक्त्वकी क्षपणा करनेपर इक्कीसकी सत्ता होती है। अनन्तर क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए पुरुषवेदी जीवके क्रमसे अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान आवरण आठ, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह नोकषाय, पुरुषवेद, संजलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया और संज्वलनलोभकी क्षपणा करनेपर १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। इतनी विशेषता है कि जो स्त्रीवेदके साथ क्षपकश्रेणी चढ़ता है वह पुरुषवेद और छह नोकषायोंका एक साथ क्षय करता है, अतः उसके पांच प्रकृतिक स्थान नहीं होता । इस प्रकार इन नियमोंको ध्यानमें रख कर ओघ और आदेशसे कहे गये सन्निकर्षका विचार करना चाहिये । इससे यह जानने में देरी न लगेगी कि किन प्रकृतियों के रहते हुए किन प्रकृतियोंकी सत्ता है ही और किन प्रकृतियोंकी सत्ता है भी और नही भी है। उदाहरणार्थ लोभ संज्वलनकी विभक्तिवालेके शेष सत्ताईस प्रकृतियां होंगी और नहीं भी होंगी, क्योंकि लोभसंज्वलनका सत्त्वक्षय सबके अन्त में होता है । पर मानसंज्वलनकी विभक्तिवालेके लोभसंज्वलन अवश्य होगा, क्योंकि मानसंज्वलनका सत्त्वक्षय लोभसंज्वलनके पहले हो जाता है । इसीप्रकार सर्वत्र जानना ।
६१४४.आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है उसके सब प्रकृतियोंका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार सम्यकप्रकृतिकी अपेक्षा ओघके समान कथन करना चाहिये । जो जीव सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्ति वाला नियमसे है। किन्तु सम्यक् प्रकृति और अनन्तानुबन्धीकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा ओघके समान कथन है। जो नारकी अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्ति वाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विभक्ति वाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष बीस प्रकृतियोंकी विभक्ति वाला नियमसे
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