Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए भंगविचो
- ६१५४. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं अत्थि णियमा विहत्तिया च अविहत्तिया च; सेसाणं पयडीणं अस्थि विहत्तिया चेव । एवं पढमाए पुढवीए तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पजत्तदेवा-सोहम्मीसाण जाव सम्वसिद्धि ति वेउब्विय०-परिहार०-संजदासंजद-असंजदपंचलेम्सेत्ति वत्तव्यं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणु०चउकाणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अत्थि; सेसाणं पय० विहत्तिया णियमा अस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसि० वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि सेसाणं विहत्तिया णियमा अत्थि । एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०तसअपज्ज०-सव्वपंचकाय-मदि-सुदअण्णाणि-विहंग-मिच्छादिष्ठि-असण्णि त्ति वत्तव्वं ।
६१५४. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसीप्रकार पहली पृथ्वीमें और सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म-ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके कथन करना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंसे लेकर पालेश्यावाले जीवों तक सभी जीव इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तो नियमसे हैं। पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले भी नाना जीव होते हैं। तथा दूसरी पृथिवीसे लेकर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सभी जीव बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तो नियमसे हैं। पर सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले भी नाना जीव होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही हैं। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, सब प्रकारके पांचों स्थावरकाय, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
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