Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ___६१०६. अणंताणुबंधिचउक्क० किं सादिया४ १ सादि-अणादि-धुव-अद्भुवः । एवमचक्खुदंसण०- भवसिद्धि० । णवरि भव० धुवं णत्थि । अभवियसमाणेसु भविएसु वि ण धुवमत्थि विणासणसत्तिसम्भावादो । अभवसिद्धि० सव्वपयडि० किं सादि०४ ? अणादि० धुव०। सेसासु मग्गणासु सव्वपयडी० सादि० अर्धव०, तथावहिदजीवाभावादो। णवरि मदि०-सुद०-असंजदमिच्छाइट्ठीसु छन्वीसपयडीणं विहात्ति० सादि० अणादि० धुवा० अद्भुवा वा, सम्म०-सम्मामिच्छत्त० सादि०अद्धवा। एवं सादिअणादि-धुव-अद्भुवाणुगमो समत्तो।
६१०१.अनन्तानुबन्धी चतुष्क क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्क सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रुव है। विसंयोजनाके पहले अनादि है। विसंयोजनाके अनन्तर पुनः सत्त्व होनेसे सादि है। अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है।
इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्यजीवोंके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके ध्रुवपद नहीं है । तथा अभव्योंके समान जी भव्य हैं उनके भी ध्रुवपद नहीं है, क्योंकि उनके विभक्तियोंके विनाश करनेकी शक्ति पाई जाती है।
विशेषार्थ-अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक निरन्तर रहता है और वह भव्य और अभव्य दोनोंके पाया जाता है। अतः इनके ओघप्ररूपणाके समान विवक्षित प्रकृतियोंके यथासंभव पद बन जाते हैं। भव्य जीवोंके भी ओघप्ररूपणा घटित हो जाती है, पर इनके ध्रुवपद नहीं होता है; क्योंकि यह पद अभव्योंकी अपेक्षा कहा है।
अभव्य जीवोंमें सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? अनादि और ध्रुव हैं। अभव्योंके इन छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व अनादि कालसे है अतः वे अनादि हैं और अनन्त काल तक रहेगा इसलिये वे ध्रुव हैं।
इन उपर्युक्त मार्गणाओंको छोड़कर शेष मार्गणाओंमें सभी प्रकृतियां सादि और अध्रुव हैं, क्योंकि उनमें जीव सदा अवस्थित नहीं रहता। इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत और मिथ्यादृष्टि इन चार मार्गणाओंमें छब्बीस प्रकृतियां सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व सादि और अध्रुव हैं।
विशेषार्थ-भव्य जीवोंके सम्यग्दर्शन होनेके पहले तक मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ये तीन मार्गणाएं तथा संयम होनेके पहले तक असंयम मार्गणा निरन्तर पाई जाती हैं। तथा ये चारों मार्गणाएँ अभव्यके भी होती हैं। अतः इन मार्गणाओं में उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों पद बन जाते
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