Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरप डिविहती कालागुगमो
१०६
६१२६. चत्तारिकासु सम्मत सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पार्लदो ० असंखे ० भागो । सेसछव्वी संपयडीणं विहत्ति ० जह० खुद्दा०, उक्क० असंखेजा लोगा । चत्तारिबादरकासु सम्मत सम्मामिच्छत्त० विहत्तीए चत्तारिकायभंगो । सेसछब्वी संपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० कम्महिदी । चचारि - बादरकायपत्तएसु सम्मत सम्मामि ० विहत्ति ० जह० एगसमओ, सेसछव्वीसंपयडीणं विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं । सव्वासिमुक्कस्सकालो संखेआणि वस्ससहस्त्राणि । चचासौ सागर पृथत्व है । तथा लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियका लब्ध्यपर्याप्त पर्यायमें निरन्तर रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवप्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इन जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उन उन जीवोंकी उस उस पर्यायमें निरन्तर रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। यहां यह शंका उठाई गई है कि सामान्य और पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय भी संभव है फिर उसे यहां क्यों नहीं कहा। इस शंकाका समाधान वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे किया है। पहले तो यह बतलाया है. कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है ऐसा उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानमें एक समय रहकर और दूसरे समय में मरकर एकेन्द्रियोंमें नहीं उत्पन्न होता है, इसलिये अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय नहीं बनता है । तथा दूसरे उत्तर द्वारा आचार्यान्तर के अभिप्रायसे अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय स्वीकार कर लिया है जो ऊपर दिखाया ही है । तथा उक्त तीनों प्रकारके जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा होता है । और पंचेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके उक्त दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो तीन पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर बताया है इसका खुलासा पृष्ठ १०० पर कर आये हैं । और लब्ध्यपर्याप्तकका उस पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे उनके उक्तं दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
१२६. पृथिवीकाय आदि चार कार्यों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवप्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । बादर पृथिवीकाय आदि चार बादरकार्यों में सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका काल पृथिवीकाय आदि चार कार्योंके समान है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादरपृथिवीकायिकपर्याप्त आदि चार बादरकायपर्याप्त जीवोंके सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल
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