Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ म्भहियाणि । अणंताणुबंधिचउक्क तिरिक्खोघमंगो। एवं मणुसपज०-मणुसिणीसु वत्तव्वं । पंचिंदियतिरि०अपज. सव्वपयडीणं णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज. अणुदिसादि जाव सव्वत्ति सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज-तस०अपज-सव्वपंचकाय-ओरालियमिस्स०-वेउव्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०-कम्म इय०-अवगदवेद-अकसाय०- मदिसुदअण्णाण-विभंग०-आमिणि०- सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल तिर्यचसामान्यके समान है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके अन्तर काल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर बताये गये सभी मार्गणास्थानोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्व का जघन्य अन्तरकाल एक समय जिसप्रकार ओघ प्ररूपणामें घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी उस उस मार्गणामें जान लेना चाहिये । सामान्यतिर्यंचोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो ओघके समान कहा है उसका इतना ही मतलब है कि
ओघकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंके अन्तरकालमें जिसप्रकार पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे न्यून अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनका ग्रहण किया है उसीप्रकार यहां भी ग्रहण करना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि यहां अर्धपुद्गलपरिवर्तनके कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्व न ग्रहण कराकर उपान्त्य भवमें तिथंचपर्यायमें उत्पन्न कराकर उस पर्याय के अन्तमें सम्यक्त्व प्रहण करावे । और इसप्रकार प्रारंभमें उद्वेलनासंबन्धी पल्योपमके असंख्यातवेंभाग कालको और अन्त में दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालको अर्धपुद्गलपरिवर्तनमेंसे पटा देने पर जो काल शेष रहता है वह उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। पंचेन्द्रियादि तीन प्रकारके तिर्यच और मनुष्यपर्याप्त तथा मनुष्यनियोंका जो पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम आदि उत्कृष्ट काल कहा है उसमें अन्तर्मुहूर्त कालके घटा देने पर शेष काल उस उस मार्गणामें सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल जान लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल सुगम है इसलिये यहां नहीं लिस्वा है।
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके सभी प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, सभी प्रकारके पांचों स्थावरकाय,
औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत,
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