Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ जह० एगसमओ, उक्क. पुवकोडी देसूणा। अणंताणु०चउक्कविहत्ति० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० पुष्वकोडी देरणा । असंजदेसु मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोक० विह मदिअण्णाणिभंगो । सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति. केव० ? जह० एगसमओ, अंतोमुहुतं । उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चक्खुदंसणी. तसपज्जरभंगो ।
सामायिक और छेदोपस्थापना संयतके चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ-जो जीव उपशमश्रेणीसे उतरकर दसवें गुणस्थानसे नौवें गुणस्थानमें आकर और वहां सामायिक संयम या छेदोपस्थापना संयमके साथ एक समय तक रहकर दूसरे समयमें मर जाता है उस सामायिक या छेदोपस्थापना संयत जीवके चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयतके जघन्य कालकी अपेक्षा है । तथा इसीप्रकार सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल भी सामायिक और छेदोपस्थापना संयतके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा देशोन पूर्वकोटि जानना चाहिये । यहां देशोनसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये ।
असंयतोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायका काल मत्यज्ञानियोंके उक्त प्रकृतियोंके कहे गये कालके समान है। तथा असंयतोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्षका काल कितना है ? जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। तथा चक्षुदर्शनी जीवोंके सब प्रकृतियोंका काल त्रसपर्याप्त मीचोंके समान होता है।
विशेषार्थ-असंयतोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायके कालके अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन भङ्ग होते हैं। उनमें से प्रकृतमें सादिसान्त काल विवक्षित है। जो संयत जीव अन्तर्मुहूर्त कालतक असंयत रह कर पुनः संयत हो जाता है उस असंयतके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा जो अपुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें संयमको प्राप्त हुआ है अनन्तर उपशम सम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रहने पर सासादन सम्यग्दृष्टि हो गया है और इसके वाद मिथ्यादृष्टि हो गया है। वह जब अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर संयत होता है तब असंयतके कालका प्रमाण कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्राप्त हो जाता है। असंयतके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल भी यही है, क्योंकि इतने काल तक उक्त प्रकृतियोंका बराबर सत्त्व पाया जाता है। जो संयत जीव कृतकृत्यवेदकके कालमें एक समय शेष रहने पर मर कर अन्य गतिमें जाकर असंयत हो जाता है। उस असंयत सम्यग्दृष्टिके सम्यक्प्रकृतिका जघन्य काल एक समय होता है। सम्यग्मिथ्या
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