Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
६११६. आदेसेण णिरयगदीए णेरयियेसु मिच्छत-बारसकसाय-णवणोकसाय विहत्ती केव० १ जह० दस वाससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि। एवं सम्मत्त सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं । णवरि जह० एगसमओ। पढमादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि बाबीसहं पयडीणमप्पप्पणो जहण्णुक्कस्सहिदी वत्तव्वा। छण्णं पयडीणं जह० एगसमओ, उक्क० सग-सग-उक्कस्सहिदी होदि । णवरि सत्तमाए पुढवीए अणंताणु०चउकस्स जह० अंतोमुहुत्तं । कुदो, अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्तविदियसमए चेव मरणाभावादो।
११६. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यत्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भी काल समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्य काल एक समय है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोंका जघन्य
और उत्कृष्ट काल कहते समय प्रथमादि नरकोंमें जहां जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति हो वहां उतना जघन्य और उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । किन्तु छह प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है तथा उत्कृष्ट काल प्रथमादि नरकोंमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, अनन्तानुबन्धीका पुन: संयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समयमें ही मरण नहीं होता है।।
विशेषार्थ-सामान्यसे नरककी जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है और सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चार इनको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोंका किसी भी नारकी के अभाव नहीं होता है, अतः इन बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा। तथा विशेषकी अपेक्षा जिस नरक की जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति है उतना कहा। शेष उपर्युक्त छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल तो पूर्वोक्त ही है। परन्तु जघन्य कालमें कुछ विशेषता है जो निम्न. प्रकार है-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले किसी जीवके उद्वेलनाके कालमें एक समय शेष रहते हुए प्रथमादि नरकमें उत्पन्न होने पर उक्त दोनों प्रकृतियोंका सामान्य और विशेष दोनों प्रकारसे जघन्य काल एक समय बन जाता है तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहां एक समय तक अनन्तानुबन्धीके साथ रहकर दूसरे समयमें मरकर यदि अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है तो उसके नरकगतिकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीका जघन्य
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