Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ग्दृष्टि होकर जिसने क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके इन दोनों प्रकृतियोंका सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है। तथा उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर है। जो इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया और इसके बाद वह पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां उसे उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें सबसे अधिक काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग लगता है। पर अपने अपने उद्वेलना कालमें जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब उस जीवने उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिका प्रारम्भ किया और जब उद्वेलनाका उपान्त्य समय प्राप्त हुआ तभी मिथ्यात्वका अभाव होकर उपसमसम्यक्त्त्व प्राप्त हो गया और इस प्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी धारा न टूट कर इनका नवीन सत्त्व प्राप्त हो गया। अनन्तर छयामठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। और वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंके उद्वेलना काल पल्योपमके असंख्यातवें भागके अन्तिम समयमें पुनः उपशम सम्यत्वको प्राप्त कर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी धारा न टूटते हुए नवीन सत्ता प्राप्त कर ली। अनन्तर छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वह जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करके क्रमसे उनका अभाव कर देता है। इस प्रकार उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी चारका अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है। तथा जिस भव्यने सम्यक्त्व प्राप्त करके सर्व प्रथम अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके अनादि-सान्त काल होता है। तथा विसंयोजनाके बाद जिसके पुनः अनन्तानुबन्धीकी सत्ता प्राप्त हो जाती है उसके अनन्तानुबन्धीका सादि-सान्त काल होता है। इस सादि-सान्त कालका जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले किसी जीवके उसकी पुनः सत्ता होने पर जो अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसकी पुनः विसंयोजना कर देता है उसके अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होता है। और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जो जीव मिथ्यात्वमें जाकर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक मिथ्यात्वके साथ ही रहता है उसके अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुदल परिवर्तन प्राप्त होता है । अचक्षुदर्शनका अभाव बारहवें गुणस्थानमें होता है उसके पहले वह सदा रहता है और उसका सद्भाव भव्य और अभव्य दोनोंके है, अतः इसके सभी प्रकृतियोंका काल ओघके समान बन जाता है। भव्य मार्गणा भी चौदहवें गुणस्थानकी प्राप्ति होने तक निरन्तर पाई जाती है, इसलिए वह अनादि तो है पर अनन्त नहीं, अतः इसके अनन्त विकल्पको छोड़कर काल संबन्धी शेष सब प्ररूपणा ओघके समान बन जाती है।
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