Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयाडविहत्तीए कालाणुगमो ६ ११८. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? अणादिया अपजवसिदा, अणादिया सपज्जवसिदा । सम्मत्त०-सम्मामि विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० बे छावहिसागरोवमाणि तीहि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेहि सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्कविहत्ती केवचिरं का० ? अणादि० अपञ्जवसिदा अणादि०सपञ्जवसिदा, सादि० सपञ्जवसिदा वा । जा सा सादिसपञ्जवसिदा तिस्से इमो णिद्देसो-जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियहं देसूणं । एवमचक्खु०-भवसिद्धि। णवरि भवसि० अपज्जवसिदं णत्थि। छोड़ कर शेष बाईस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। शेष छह प्रकृतियोंका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। अनन्तानुबन्धी चारका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका ही सत्त्व होता है।
इस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६११८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है १ अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एकसौ बत्तीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त काल है। उनमेंसे जो सादि-सान्त अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति है आगे उसका निर्देश करते हैं-अनन्तानुबन्धीचतुष्कविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके अनन्तकाल नहीं है।
विशेषार्थ-बारह कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्वका अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है और भव्योंके अनादि-सान्त काल होता है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियां नियमसे सादि-सान्त हैं, इसमें भी इन दोनोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जिसके पहले इन दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है ऐसा जो उपशम सम्यग्दृष्टि अति लघु अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशमसम्यक्त्वके साथ रहा, अनन्तर वेदकसम्य
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