Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गी० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
$ ११२. पंचिदियतिरिक्खअपजच० सम्मत्त० सम्मामि० विहत्ती अविहत्ती च कस्स ? अण्णदरस्स | सेसाणं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स । एवं मणुस्स - अपजत्त - सव्व एइंदिय - सव्वविगलिंदिय- पंचिंदियअपजत्त-तस अपज० - पंचकाय० - बादर सुहुम-पअत्तापञ्जत्त-मदि-सुदअण्णाणि विभंग०-मिच्छाइट्टि असण्ण त्ति वत्तव्यं । अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धि त्ति मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामिच्छत्तविहत्ती कस्स ? अण्ण० । अविहती कस्स ? अण्णदरस्स खविददंसणमोहणीयस्स । एवमणंताणुबंधिचउक्कस्स । वरि अविहत्ती कस्स, अण्णदरस्स विसंयोजिदाणंताणुबंधिचउक्कस्स । सेसाणं पयडीणं वित्ती कस्स ? अण्णदरस्स । एवमाहार० - आहार मिस्स ० परिहार० संजदासंजदा चि ।
$११२. पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति तथा अविभक्ति किसके है ? किसी भी जीवके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्ति होती है । तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी जीवके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय, तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों पर्याप्त और अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - उक्त मार्गणावाले जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है । तथा जिसने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है, शेषके है ।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्याकी विभक्ति किसके है ? किसी भी देवके मिथ्यात्व आदिकी विभक्ति है । इन प्रकृतियोंकी अविभक्ति किसके है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी देवके इनकी अविभक्ति है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विषय में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना कर दी है ऐसे किसी भी देवके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्ति है । इन सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी देवके शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्ति है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - उपर्युक्त मार्गणाओं में सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं ।
दर्शनमोहनीयका क्षय हो
अतः जिनके चार
गया है उनके इन पर इन मार्गणाओंमें इनके अतिरिक्त शेष इक्कीस
अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और तीन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है, शेषके है
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