Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जेयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयाडचिहत्ती २ पजत्त-तस-तसपजत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-चक्खु०-अचक्खु० सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धिय-सण्णि-आहारि त्ति ।
६१११. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छा-अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो। बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती कस्स ? अण्णद० । एवं पढमाए पुढवीए तिरिक्खगइ-पचिंदियतिरिक्ख-पंचिंति०पज०-देवा-सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव उवरिमगेवजेत्ति वेउब्विय-वेउब्धियमिस्स-असंजद-पंचलेस्सिया ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्त-अविहत्ती णस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसिया त्ति वत्तव्वं ।
इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। अर्थात् उपर्युक्त मनुष्यत्रिक आदि मार्गणाओंमें प्रारंभके वारह गुणस्थान संभव हैं, अतः इनमें ओघके समान प्ररूपणा बन जाती है।
६१११.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन ओघके समान है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायविभक्ति किसके है ? किसी भी नारकीके है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्यतियंच, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर उपरिमौवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-इन मार्गणास्थानवाले जीवोंके क्षायिक सम्यग्दर्शन हो सकता है, अतः इनके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व है भी और नहीं भी है। पर इनमेंसे किसीके भी क्षपकश्रेणी संभव नहीं है, अत: उक्त सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंका इनके सत्त्व ही है।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिथंचयोनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन छह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियोंका सत्त्व है । पर उक्त छह प्रकृतियोंमेंसे जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका असत्त्व होता है और शेषके सत्त्व होता है। तथा जिस सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका असत्त्व होता है और शेषके सत्त्व होता है।
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