Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सत्तसु पुढवीसु । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुरस अपज्जत्त-देव० भवणादि जाव अवराइदंताणं सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पुढवि०-आउ०-[ तेउ०] वाउ०-बादरपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरआउ०-पज्जत्तअपज्जत्त-बादरतेउ०-पज्जत्तअपज्जत्त-चादरवाउका०-पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुम पुढवी०-पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुमआउ०पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुमतेउ०-पज्जत्तअपज्जत-सुहुमवाउ०- पज्जत्तअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-पजत्तअपजत्त-बादरणिगोदपदिहिद०- पञ्जत्तअपज्जत्त-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस-विभंग-संजदासंजद-तेउ०-पम्म०-वेदग०-उवसम-सासणसम्मामिच्छादिट्टीणं वत्तव्वं ।
६७२. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु विहत्ति केवडि० ? अणंता । एवं सव्वएइंदिय०वणप्फदि०-वादर० पज्जत्त अपज्ज०-सुहुम० पज्जत्त अपज्जत्त-णिगोद० बादर० पज्जत्त ख्यात हैं। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें कथन करना चाहिये। तथा सभी पंचेन्द्रिय तियच, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित स्वर्ग तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्य पर्याप्त, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रिक मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, संयतासंयत, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकी असंख्यात होते हैं और प्रत्येक नरकके नारकी भी असंख्यात ही होते हैं। तथा वे सब मोहनीय कर्मसे युक्त ही होते हैं। इसीलिये ऊपर मोहनीय कर्मसे युक्त सामान्य और विशेष नारकियोंका प्रमाण असंख्यात कहा है। अनन्तर जो मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें भी प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात है और वे सब मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं, अतः उनका कथन नारकियोंके समान कहा है।
६७२. तिथंचगतिमें तिर्यंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय जीव, वनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सामान्यनिगोद
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