Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
मूलप डिविहती कालानुगमो
७१
सुक्कलेस्सा० विहति० संजदासंजदभंगो । अविहत्ति० ओघभंगो । सम्मादिडि - खइय० विहत्ति आमिणिबोहियभंगो । अविहत्ति० ओघभंगो । वेदय० विहत्ति० आभिणिबोहियभंगो । एवमुवसम० सम्मामि० वत्तव्यं । सासण० विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठ बारह चोहसभागा वा देखणा ।
एवं पोसणं समत्तं
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६ ८६. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहविहत्तिया अविहत्तिया च केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं मणुस्स - मणुस - पज्जत्त - मणुसिणी- पंचिंदिय-पंचि ० पज्जत्त-तस-तसपज्ज० - तिणि मण० - तिष्णि वचि० कायजोगि० - ओरालिय० - संजद - सुक्कले ० - भवसिद्धि ० - सम्मादिट्ठि - खइय ० - आहारि अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुस्सअपज्ज० विहत्ति केव० कालादो होंति ? जह० खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । दोमण० - दोवचि०समान स्पर्शन है। मोहनीय विभक्तिवाले सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके मतिज्ञानियोंके समान स्पर्शन है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघके समान स्पर्शन है । मोहनीय विभक्तिवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके मतिज्ञानियोंके समान स्पर्शन है । तथा इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यमिध्यादृष्टि जीवोंके स्पर्शन जानना चाहिये । मोहनीय विभक्तिवाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
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इस प्रकार स्पर्शनानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
८६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वकाल है । इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यणी, पंचेन्दिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहां मोहनीयविभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल बतलाया है। सामान्यसे तो उक्त दोनों प्रकार के जीव सर्वदा हैं ही । पर ऊपर जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी दोनों प्रकारके नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसीलिये इनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है ।
लब्धपर्याप्तक मनुष्यों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसका यह
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