Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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मा० २२ ]
मूलप डिविहत्तीए अप्पा बहुगागमो
७६
सुक्कले० सर्ष्णि त्ति वतव्वं । मणुसपज्जत - मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अविहति० विहत्ति ० संखेज्जगुणा । एवं मणपज्जव ० संजदाणं वत्तव्वं । अवगदवे० सव्वत्थोवा विहारी० अविहत्ति अनंतगुणा । एवमकसाय सम्मादिट्ठिी - खइयसम्मादिट्टीणं णेदव्वं । जहाक्खाद० सव्वत्थोवा विहत्ति, अविहत्ति ० संखेज्जगुणा । सेसासु मग्गणासु णत्थि अप्पा बहुगं एगपदत्तादो ।
एवं मूलपयडिविहत्ती समत्ता ।
विशेषार्थ - ये जितनी मार्गणायें ऊपर कही है उनमें प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात है पर इनमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यात ही होते हैं अतः इन मार्गणाओंमें मोहनीय अविभक्तिवालोंसे मोहनीय विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कहे हैं ।
मनुष्य पर्याप्त और योनिमती मनुष्यों में मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके कहना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मोहनीय अविभक्तिवाले जीव इनसे अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार अकषायी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - अपगतवेदी आदि जीवोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंसे बारहवें गुणस्थान से लेकर सिद्धों तक सबका ग्रहण किया है। इसलिए उक्त मार्गणाओंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंसे मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं ।
यथाख्यातसंयतों में मोहनीयविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव इनसे संख्यातगुणे हैं । इन उपर्युक्त मार्गणाओंको छोड़कर शेष मार्गणाओं में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि वहां पर दोनोंमेंसे एक पद ही पाया जाता है । इस प्रकार मूलप्रकृतिविभक्ति समाप्त हुई ।
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