Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए भावाणुगमो
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६४. अकसाय० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुध । अविहत्ति० णत्थि अंतरं । एवं जहाक्खाद० वत्तव्यं । सुहुमसांप० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा। उवसम० विह० जह० एगसमओ, उक्कस्सेण चउवीस अहोरचाणि ।
एवमंतरं समत्तं ६६५. भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण विहत्ति० काल नहीं कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली और सिद्ध जीव सर्वदा पाये जाते हैं जो कि अपगतवेदी होते हुए मोहनीयविभक्तिसे रहित हैं।
६१४.अकषायियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टि मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिन रात है।
विशेषार्थ-अकषायीजीवोंके ग्यारहवें गुणस्थानमें ही मोहनीयकी सत्ता पाई जाती है और उसका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः अकषायी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है। तथा अकषायियोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके अन्तरकालके नहीं कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली और सिद्ध जीव सर्वदा पाये जाते हैं। मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले यथाख्यातसंयतोंका अन्तर काल भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष बात यह है कि मोहनीय अविभक्तिवाले यथाख्यातसंयतोंके अन्तर कालका अभाव सयोग केवलियोंकी अपेक्षासे कहना चाहिये। सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना स्पष्ट ही है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है। अतः मोहनीय विभक्तिकी अपेक्षा उपशम सम्यग्हष्टियोंका अन्तरकाल भी इतना ही कहा है। यद्यपि जीवट्ठाणके अन्तरानुयोगद्वारमें असंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंका और खुद्दाबंधमें सामान्य उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन रात बताया है और यहां उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है, इसलिये जीवठ्ठाण और खुद्दाबन्धके उक्त कथनसे इस कथनमें विरोध आता हुआ प्रतीत होता है पर इसे विरोध न मानकर मान्यताभेद मानना चाहिये, इसलिये कोई दोष नहीं है। __ इसप्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६५. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ।
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