Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ माणेसु तदवगमुप्पत्तीदो। भागाभागो ण वत्तव्यो; अवगयअप्पाबहुग [स्स] संखविसयपडिबोहुप्पत्तीदो। भावो वि ण वत्तव्वो; उवदेसेण विणा वि मोहोदएण मोहपयडिविहत्तीए संभवो होदि ति अवगमुप्पत्तीदो । एवं संगहियसेसतेरसअत्याहियारत्तादो एक्कारसअणिओगद्दारपरूवणा चउवीसअणियोगद्दारपरूवणाए सह ण विरुज्झदे ।
* एदेसु अणियोगहारेसु परूविदेसु तदो एगेग-उत्तरपयडिविहत्ती समत्ता।
६ १००. संपहि एत्थ उँ[चारणाइरियवक्खा] णं जडजणाणुग्गह परूविदमिह वण्णइस्सामो; संपहि मेहाविजणाभावादो। तं जहा, तत्थ इमाणि चउवीस अणुओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्त्तिणा सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्भुवविहत्ती एगजीवेण [सामित्तं कालो अंतरं सण्णियासो] णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागाणुगमो परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुगं चेदि। है। तथा भागाभाग अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिसे अल्पबहुत्वका ज्ञान हो गया है उसे भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है। उसी प्रकार भाव अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि, मोहके उदयसे मोहप्रकृतिविभक्ति होती है यह बात उपदेशके बिना भी जानी जाती है । इस प्रकार शेष तेरह अनुयोगद्वार ग्यारह अनुयोगद्वारों में ही संग्रहीत हो जाते हैं, अत: ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होता। __* इन ग्यारह अनुयोगद्वारोंके कथन करने पर एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति नामक अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है।
६१००. अब मन्दबुद्धिजनों पर अनुग्रह करनेके लिये उच्चारणाचार्यके द्वारा किये गये व्याख्यानको यहां कहते हैं, क्योंकि, इस कालमें बुद्धिमान मनुष्य नहीं पाये जाते हैं। वह इस प्रकार है-उस एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्तिके कथनमें ये चौबीस अनुयोगद्वार जानने चाहिये। समुत्कीर्तना, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति तथा एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावा
(१) ग..... (त्रु० ७) हुप्प-स० ।-गसंखविसयपडिबोहुप्प-अ०, आ० । (२) उ. (त्रु० ११) ण-स० । उत्तरपयडिविहत्तीणं-५०, प्रा०। (३)-ण . . . . (त्रु० १४) णाणाजी-स० ।-णसमुक्कित्तणा सव्वविहत्ती णाणाजी-प्र०, प्रा०,।
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