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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्कित्तणाणुगमो
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६१०४. सुहुम मिच्छत्त०-सम्मत्त०-सम्मामि०-एक्कारसकसाय०-णवणोकसाय० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति० । लोभ० अस्थि विहत्ति०, अणंताणुबंधिचउक्कविहत्तिया णियमा णत्थि । अभवसिद्धि० छव्वीसपयडीणं अस्थि विहत्ति० । खइय० एक्कवीस० अस्थि विहत्ति० अविहत्तिक । वेदगं० [मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-] अणंताणुवंधिचउक्क० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सम्मत्त०-बारसकसाय-णवणोकसाय० अस्थि विहत्ति० । उवसमसम्माइट्ठीसु अणंताणुबंधिचउक्कस्स अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसचउवीसहं पयडीणं अस्थि विहत्ति । एवं सम्मामि० । सासण. सव्वासिं पयडीणं विहत्ती णियमा अस्थि ।
एवं समुकित्तणा समत्ता। क्रोधका, मायावेदकके मानका और लोभवेदकके मायाका सत्त्व है भी नहीं भी है । शेष कथन पुरुषवेदीके समान जानना चाहिये । सामायिक और छेदोपस्थापना संयम नौवें गुणस्थान तक होते हैं, अतः इनके लोभकषायवाले जीवोंके समान लोभकषायको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है, पर लोभकषायका सत्त्व नियमसे है।
६१०४. सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यमिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषाय इन तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले हैं। लोभकी नियमसे विभक्तिवाले हैं और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी नियमसे अविभक्ति वाले हैं।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसांपराय संयम दसवें गुणस्थानमें होता है। इसलिये यहां अनन्तानुबन्धी चारका सत्त्व तो है ही नहीं। शेष चौबीस प्रकृतियोंमेंसे तेईस प्रकृतियोंका क्षपक श्रेणीवालेके अभाव होता है और उपशमश्रेणीवालेके उनका सत्त्व पाया जाता है। पर इसके सूक्ष्म लोभका सत्त्व नियमसे है। ___ अभव्य जीवों में सभी जीव मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले हैं। तथा सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषाय इन बाईस प्रकृतियोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धी चारकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। तथा शेष चौबीस प्रकृतियोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टियों में नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव हैं।
(१)-मा अत्थि-स०, मा०। (२) वेदग० . . . . (त्रु० ११) अणं-स० ।
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