Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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____ जयधवालासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ पढमपुढवि०-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज०-देव-सोहम्मीसाणप्पहडि जाव सव्वदेव०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-परिहार०-संजदासंजद-[असंजद-पंचलेस्सिया]त्ति। विदियप्पहुडि जाव सत्तमेत्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्तस्स अविहत्तिया णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-भवण-वाणवेंतर-जोदिसिया ति वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसाणं अत्थि विहत्तिः । एवं मणुसअपज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पञ्जत्त-अपज. पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत और कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर सामान्य नारकी आदि जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें कमसे कम इक्कीस और अधिकसे अधिक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव होते हैं।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक छह पृथिवियोंके नारकियोंके इसी प्रकार कथन करना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव नहीं होते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह प्रकृतियोंका अभाव हो सकता है पर एक जीवके छह प्रकृतियोंका अभाव नहीं होता । जिसने सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका अभाव होता है। तथा जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अभाव होता है। क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्तिकालमें ही उक्त छह प्रकृतियोंका एकसाथ अभाव पाया जाता है। पर इन मार्गणाओंमें क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं, और न क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही इनमें उत्पन्न होता है अतः इनमें उक्त छह प्रकृतियोंका अभाव नाना जीवोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें अधिकसे अधिक अट्ठाईस और कमसे कम चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है। __ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्धपर्याप्तकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले जीव हैं । तथा इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसी प्रकार लब्धपर्याप्तक मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त, पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक पांचों
(१) असंजदप्पहुडि . . . . (त्रु० १६) त्ति एवं ।-स० ।
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