Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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बचनयोगी और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६८१. फोसणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण मोह. विहत्तिएहि केव० खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। अविहत्तिएहि केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असं० भागो, असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा। एवं कायजोगि-भवसिद्धियअणाहारि त्ति वत्तव्वं ।
मार्गणा स्व. वि. वे. | क. वै. | तै. | आ. मा. के. उप. | पांचों मनोयोगी पांचों । __ बचनयोगी और
मनःपर्ययज्ञानी मति श्रुत, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, चक्षुद०, अचक्षुद० संज्ञी औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रका० आहारकका० कार्मणकाययोगी , ४ " | " x x x x | " "
इन मनोयोगी आदि मार्गणाओं में क्षेत्रका कथन ऊपर किया ही है अतः जहां स्वस्थान आदि जिस पदकी अपेक्षा विभक्तिवाले या संभव अविभक्तिवाले जीवोंके जितना क्षेत्र संभव हो उसे घटित कर लेना चाहिये । कथनमें और कोई विशेषता न होनेसे यहां नहीं लिखा है। यहां कार्मणकाययोगमें पांच पद बतलाये हैं। पर तत्त्वतः यहां केवल समुद्धात और उपपाद ये दो पद ही संभव हैं। शेष तीन पद अपेक्षा विशेषसे कहे गये हैं। इस प्रकार क्षेत्रप्ररूपणा समाप्त हुई।
८१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इसीप्रकार काययोगी, भव्य और अनाहारकोंके स्पर्शनका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-स्पर्शनमें त्रिकालविषयक क्षेत्रका ग्रहण किया है। पर भविष्यकालीन क्षेत्र और अतीतकालीन क्षेत्रमें कोई अन्तर नहीं है दोनों समान हैं, अतएव इन दोनोंमेंसे एक अतीतकालीन क्षेत्रके कह देनेसे दूसरेका ग्रहण अपने आप हो जाता है, अतः उसे
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