Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो ८३. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु खेत्तभंगो। एवं णवगेवेज्जादि जाव सव्व४०सव्व एइंदि०-पुढवि०- बादरपुढवि०-बादरपु०अप०-आउ०-बादरआउ०-बादरआउअपज्ज०-तेउ०-बाद०तेउ०-बादरतेउ०अप०-बाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउ० अप०सुहुमपुढवि०-सुहु०पुढविपज्ज०-सु० पु०अपज्ज०-सुहुमाउ०-सुहुम आउपज्ज०-सु० आउ अपज्ज-सु० तेउ०-सु० तेउ० पज्ज०-सुहु० तेउ० अपज्ज-सुहुमवाउ०-सु० जाता है। जो लोकसे भाजित करने पर लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। उपपादकी अपेक्षा स्पर्शन लाते समय दूसरी पृथिवीकी अपेक्षासे लाना चाहिये । एक समयमें उपपादको प्राप्त होनेवाले जीवोंके प्रमाणको एक राजु लम्बे और तिर्यंचोंकी अवगाहनासे नौगुणे प्रतर रूप क्षेत्रसे गुणित कर देने पर उपपादकी अपेक्षा स्पर्शन आ जाता है, जो लोकसे भाजित करने पर उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। यह जो ऊपर भिन्न-भिन्न नरकोंकी प्रधानतासे स्पर्शन कहा गया है इसमें शेष नारकियोंके स्पर्शनके मिला देने पर भी वह लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। इसी प्रकार अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और वैक्रियिक पदोंको प्राप्त सामान्य नारकियोंका स्पर्शन क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए सामान्य नारकियोंका स्पर्शन देशोन छह वटे चौदह राजु प्रमाण है, क्योंकि, मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा अतीतकालमें देशोन तीन हजार योजन कम आनुपूर्वीके योग्य मध्यलोकसे लेकर सातवें नरक तकके सभी क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषरूपसे विचार करने पर पहले नरकके स्पर्शन और क्षेत्रमें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् पहले नरकका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण जानना चाहिये । द्वितीयादि नरकोंमें मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्शनका कथन करते समय मध्यलोकसे उस उस नरक भूमि तक जितने राजु हों, देशोन उतना स्पर्शन कहना चाहिये। शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन ओघके समान है।
६८३. तियंचगतिमें तिर्यंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान जानना चाहिये। नौ प्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंका स्पर्शन भी इसीप्रकार अर्थात् क्षेत्रके समान जानना चाहिये । तथा सर्व एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तं, अप्कायिक, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त,
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